वास्तु नियम अपनाएं।। जीवन को सुखी और समृद्ध बनाये।।


वर्तमान समय में वास्तु शास्त्र का प्रत्येक मनुष्य के जीवन में अत्यधिक महत्व है क्योंकि वास्तु अनुकूल नहीं होगा तो मानसिक शांति कैसे होगी। सुखमय जीवन के लिए वास्तु देवता की प्रसन्नता आवश्यक है। इसलिए गृह पूजन में ‘स्थान देवताभ्यो नम:’, ‘वास्तु देवताभ्यो नम:’ आदि मंत्रों से शांति प्रदान करने का विधान है। प्रत्येक दिशा का अपना महत्व है।


दिशाओं का वास्तु शास्त्र से अटूट संबंध है। आवासीय भवन के लिए भूमि खरीदने से पहले मुख्यत: निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए।
समतल भूमि- समतल भूमि सभी के लिए शुभ होती है- सर्वेषां चैवजनानां समभूमि शुभावता। इस प्रकार समतल भूमि आवास निर्माण के लिए सर्वथा लाभकारी भूमि है।


गजपृष्ठ भूमि- जो भूमि दक्षिण नैऋृत्य (दक्षिणी-पश्चिमी कोण पर) पश्चिम या वायव्य (उत्तरी-पश्चिमी कोण पर) ऊंची हो वह गजपृष्ठ भूमि कही जाती है। इस भूमि पर बने भवन का निवासी धन-धान्य से युक्त, समृद्धिशाली, दीर्घायु व निरोगी होता है।


कूर्मपृष्ठ भूमि- जो भूमि मध्य में ऊंची तथा चारो तरफ नीची हो, ऐसे भूखंड को कूर्मपृष्ठ भूमि कहते हैं। कूर्मपृष्ठ भूखंड पर निर्मित भवन में वास करने वाले व्यक्ति को नित्य सुख की प्राप्ति होती है।
दैत्यपृष्ठ भूमि- जो अग्निकोण तथा उत्तर दिशा में ऊंची व पश्चिमी दिशा में नीची हो उस भूमि को दैत्यपृष्ठ भूमि कहते हैं। यह भूमि शुभ नहीं मानी जाती। ऐसी भूमि पर निवास करने वाला व्यक्ति धन, पुत्र, पशु सहित सभी सुखों से संचित रहता है। ऐसी भूमि यदि अल्प मूल्य में भी प्राप्त हो तो क्रय न करें।


नागपृष्ठ भूमि- पूरब-पश्चिम को लंबी, उत्तर-दक्षिण को ऊंची तथा बीच में कुछ नीची भूमि को नागपृष्ठ भूमि कहते हैं। इस पर आवास निर्मित करने से उच्चाटन होता है। इस प्रकार के भवन निर्माता को मृत्यु तुल्य कष्ट, पत्नी हानि, पुत्र हानि तथा प्रत्येक पग पर शत्रुओं का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार नागपृष्ठ भूमि निम्न कोटि की मानी जाती है।


वस्तुत: व्यक्ति भवन का निर्माण सुख-शांति से रहने के लिए करता है। यदि इन बातों का ध्यान रखकर भवन निर्माण हेतु भूमि का चयन किया जाए तो इच्छित फल की प्राप्ति हो सकती है। अनिष्टकारी भूखंडों से बचाव के लिए तथ्यों का भली-भांति ज्ञान आवश्यक है। इन सबके अतिरिक्त जिस भूमि पर मकान बनाना हो उसका जीवंत होना भी आवश्यक है। कृषि व बागवानी की भूमि सर्वथा जीवंत होती है, जहां वृक्ष हरे-भरे रहते हैं, फसलें हर्षित व प्रवर्धित होती हैं, वह भूमि जीवंत मानी जाती है। जहां उत्तमोत्तम वृक्ष व लताएं रहें, मिट्टी समतल हो, शुष्क अथवा ऊसर न हो, ऐसी भूमि पर निवास करने वाला मनुष्य सुखी रहता है। ऐसी भूमि पर यदि राहगीर भी बैठ जाए तो उसे भी सुख प्राप्ति की संभावना बढ़ जाती है।


जानिए भूखंडों का फल-


आयताकार भूखंड का भवन सर्वसिद्धिकारक, चतुर्भुजी भूखंड का भवन धनागम कारक, भद्रासन (जिसकी लंबाई, चौड़ाई से अधिक हो) भूखंड का भवन कार्य में सफलता दायक तथा वृत्ताकार भूखंड का भवन शारीरिक पुष्टिकारक होता है। ठीक इसके विपरीत चक्राकार भूखंड का भवन दरिद्रता देने वाला, विषयकारक, शोकदायी, त्रिकोणाकार भूखंड का भवन राजभय कारक, शंकु आकार वाले भूखंड का भवन धन नाशक और पशुओं की हानि देने वाला, बृहन्मुख भूखंड का भवन बंधु-वांधवों का नाश करता है। सामान्यतया भवन निर्माण के लिए वर्गाकार अथवा आयताकार भूखंड उत्तम होता है। आयताकार भूखंड की चौड़ाई, लंबाई से दो गुना या इससे कम हो तो श्रेष्ठ होता है। यदि निकास पूरब या ईशान कोण पर हो तो अत्यंत लाभकारी होता है। यदि बाहर जाने का मार्ग आग्नेय कोण या वायव्य कोण की ओर हो तो उत्तम नहीं माना जाता है।
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वास्तुशास्त्र में दिशा का ज्ञान अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। विभिन्न दिशाओं का इन ग्रहों से गहरा संबंध है-(सारणी या टेबल बनायें)–


दिशा      स्वामी       ग्रहों के स्थान
पूरब।      इंद्र          शुक्र
आग्नेय       अग्नि           चंद्रमा
दक्षिण       यम              यम
नैऋत्य।            निऋति      राहु
पश्चिम।              वरुण        शनि
वायव्य।           वायु             केतु
उत्तर।                कुबेर          बृहस्पति
ईशान                  शिव।           बुध
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जानिए मिट्टी परीक्षण कैसे करें :-


भूखंड की उत्तर दिशा की ओर लगभग दो फुट गहरा तथा चौड़ा गड्ढा खोदें। गड्ढे की सारी मिट्टी निकालकर अलग रखें और पुन: उसी मिट्टी से गढ्ढे को भरें। यदि गड्ढा भरने पर मिट्टी शेष बचती है अर्थात मिट्टी अधिक निकलती है तो समझे कि इस भूमि पर भवन निर्माण शुभदायक है। यदि मिट्टी कम पड़ जाती है तो समझ लें कि उपयुक्त नहीं है।


मिट्टी का द्वितीय परीक्षण तीन फीट का गड्ढा भूखंड के बीच में खोदकर किया जाए। इसमें पूर्णत: पानी भर दें, फिर सौ कदम दूर जाकर पुन: उसी स्थान पर आने से यदि पानी का स्तर वही रह जाता है तो भूमि अत्यंत शुभ मानी जाती है। यदि पानी का स्तर आधे से अधिक हो तो मध्यम, यदि आधे से कम हो तो भूमि का प्रभाव अच्छा नहीं होता है।


दिशा- भूखंड के चारो ओर सड़क अत्यंत शुभ मानी जाती है। दो या तीन तरफ सड़क हो तो भी भूखंड शुभ होता है। एक तरफ सड़क पूरब या उत्तर की ओर हो तो उचित होता है। पश्चिम या दक्षिण दिशा में भी सड़क होने पर भूखंड खरीदा जा सकता है।


ढाल- उत्तर या पूरब की ओर ढाल होना अत्यंत शुभ माना गया है। उपरोक्त ढाल के अतिरिक्त ढाल होने पर उपाय करना आवश्यक है। सड़क के अंतिम स्थान पर भूखंड खरीदना शुभ नहीं माना जाता है।
शल्य शोधन- भूखंड के पास मंदिर, पत्थर, नदी, तालाब, जलाशय, वृक्ष व दबे हुए दूषित पदार्थों की उपस्थिति पर भी विचार कर लेना चाहिए। वास्तु शास्त्र में भूमि का शल्योद्धार करने से भूमि के गर्भ में दबे हुए उन दूषित पदार्थों का बाहर निकालना आवश्यक है, जिनकी उपस्थिति से रोग, भय, बाधाएं तथा अन्य प्रकार के कष्ट उत्पन्न होते हैं।
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जानिए की कैसा हो गृह प्रारंभ मुहूर्त-


कोई भी भवन बाह्य दृष्टि से भव्य हो सकता है परन्तु वास्तु की दृष्टि शुभ या अशुभ हो सकता है। यदि भवन का निर्माण शुभ मुहूर्त में प्रारंभ होता है तो भवन शुभ होता है अन्यथा अशुभ व दु:खदायी हो सकता है। चैत्र, वैशाख, सावन, कार्तिक, माघ, अगहन व फाल्गुन मास गृहारंभ के लिए उत्तम होते हैं। चैत्र, कार्तिक व माघ मास तभी ग्राह्य हैं जब मेष, वृश्चिक व कुंभ की संक्रांति में हों। ज्येष्ठ, अषाढ़, भाद्रपद, अश्विन और खरमासों में गृहारंभ नहीं होना चाहिए। रोहिणी, मृगशिरा, चित्रा, हस्त, उत्तराषाढ़, श्रवण व पुष्य गृहारंभ हेतु शुभ है। स्वाती, अनुराधा, अश्विनी, शतमिषा, उत्तराभाद्र आदि मध्यम स्तर के हैं। इसके अतिरिक्त शेष नक्षत्र अशुभ हैं।
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जानिए कब और केसा हो गृह प्रवेश का शुभ मुहूर्त–


गृहारंभ के बाद दरवाजा एवं चौखट लगाने का अंतिम रूप से गृहप्रवेश का मुहूर्त महत्व का है। गृहप्रवेश के लिए सूर्य का उत्तरायण होना तथा बृहस्पति व शुक्र का सबल होने के साथ ही अनुष्ठान होना आवश्यक है। वैशाख, ज्येष्ठ और फाल्गुन मास गृहप्रवेश के लिए उत्तम मास हैं। गृह प्रवेश के लिए कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया व पंचमी तथा शुक्ल पक्ष की द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, एकादशी व त्रयोदशी तिथियां शुभ हैं। नक्षत्रों में रोहिणी, मृगशिरा, उत्तराषाढ़ व चित्रा नक्षत्र श्रेष्ठ हैं। अनुराधा तथा स्वाती नक्षत्र मध्यम तथा शेष में गृह प्रवेश अशुभ है। दिनों में सोमवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार गृह प्रवेश के लिए शुभ दिन हैं। शनिवार को भी शुभ माना गया है लेकिन चोरी होने का भय रहता है।
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गृह निर्माण से पूर्व दिशा-विदिशाओं का ज्ञान एवं इसका शोधन करना अत्यंत आवश्यक है। दिशा विहीन निर्माण से मनुष्य जीवन भर भ्रमित होकर दु:ख, कष्टादि का भागी होता है। वास्तु शास्त्र में दिशा ज्ञान हेतु सिद्धान्त ज्योतिष के तहत दिक्साधन की प्रक्रिया पूर्वकाल में विभिन्न रूपों में व्यवहृत थी। प्रक्रियान्तर्गत द्वादशांगुल शंकु की छाया से, ध्रुवतारा अवलोकन से और दीपक के संयोग से पूर्वापरादि का साधन उपलब्ध था। किन्तु ये साधन प्र्रक्रियाएं कुछ जटिल व स्थूलप्राय हैं। यही कारण है कि आज चुम्बक यंत्र (कंपास) का प्रयोग किया जा रहा है।


दिशाओं के ज्ञान के बाद विदिशाओं अर्थात कोण का ज्ञान भी आवश्यक हो जाता है। क्योंकि दिशाओं के साथ ही विदिशाओं का भी प्रभाव गृह निर्माण पर अनवरत पड़ता रहता है। विदिशा क्षेत्र किसी भी दिशा के कोणीय भाग से …5 डिग्री से लेकर 45 डिग्री तक होता है। इस तरह चार दिशा एवं चार विदिशा का पारिमाणिक वृत्त .6. डिग्री में सन्नद्ध आठ दिशाओं का ज्ञान होता है। इन आठों दिशाओं में वास्तु शास्त्र के अनुसार यदि निर्माण प्रक्रिया प्रारंभ की जाय तो यह निश्चित हे कि गृहकर्ता सुख-समृद्धि, शांति व उन्नति को प्राप्त करता हुआ चिरस्थायी निवास करता है।


दिशाओं में देवी-देवताओं और स्वामी ग्रहों के आधिपत्य से संबंधित बहुत चर्चाएं की गई हैं। दिशाओं के देव व स्वामी होने से पृथ्वी पर किसी भूखंड पर निर्माण कार्य प्रारंभ करते समय यह विचार अवश्य कर लेना होगा कि भूखंड के किस भाग में किस उद्देश्य से गृह निर्माण कराया जा रहा है। यदि उस दिशा के स्वामी या अधिकारी देवता के अनुकूल प्रयोजनार्थ निर्माण नहीं हुआ तो उस निर्माणकर्ता को उस दिशा से संबंधित देवता का कोपभाजन होना पड़ता है। इसलिए आठों दिशाओं व स्वामियों के अनुसार ही निर्माण कराना चाहिए।


पूर्व दिशा– सूर्योदय की दिशा ही पूर्व दिशा है। इसका स्वामी ग्रह सूर्य है। इस दिशा के अधिष्ठाता देव इन्द्र हैं। इस दिशा का एक नाम प्राची भी है। पूर्व दिशा से प्राणिमात्र का बहुत गहरा संबंध है। किन्तु सचेतन प्राणी मनुष्य का इस दिशा से कुछ अधिक ही लगाव है। व्यक्ति के शरीर में इस दिशा का स्थान मस्तिष्क के विकास से है। इस दिशा से पूर्ण तेजस्विता का प्रकाश नि:सृत हो रहा है। प्रात:कालीन सूर्य का प्रकाश संपूर्ण जगत को नवजीवन से आच्छादित कर रहा है। इस प्रकार आत्मिक साहस और शक्ति दिखलाने वाला प्रथम सोपान पूर्व दिशा ही है। जो हर एक को उदय मार्ग की सूचना दे रही है। इस दिशा में गृह निर्माणकर्ता को निर्माण करने अभ्युदय और संवर्धन की शक्ति अनवरत मिलती रहती है।


दक्षिण दिशा– दक्षिण दक्षता की दिशा है। इसका स्वामी ग्रह मंगल और अधिष्ठाता देव यम हैं। इस दिशा से मुख्यत: शत्रु निवारण, संरक्षण, शौर्य एवं उन्नति का विचार किया जाता है। इस दिशा के सुप्रभाव से संरक्षक प्रवृत्ति का उदय, उत्तम संतानोत्पत्ति की क्षमता तथा मार्यादित रहने की शिक्षा मिलती है। इस दिशा से प्राणी में जननशक्ति एवं संरक्षण शक्ति का समन्वय होता है। इसीलिए वैदिक साहित्य में इस दिशा का स्वामी पितर व कामदेव को भी कहा गया है। यही कारण है कि वास्तुशास्त्र में प्रमुख कर्ता हेतु शयनकक्ष दक्षिण दिशा में होना अत्यंत श्रेष्ठ माना गया है। वास्तुशास्त्र के अनुरूप गृह निर्माण यदि दक्षिणवर्ती अशुभों से दूर रहकर किया जाए तो गृहस्वामी का व्यक्तित्व, कृतित्व एवं दाक्षिण्यजन्य व्यवहार सदा फलीभूत रहता है।


पश्चिम दिशा- पश्चिम शांति की दिशा है। इस दिशा का स्वामी ग्रह शनि और अधिष्ठाता देव वरुण हैं। इसका दूसरा नाम प्रतीची है। सूर्य दिन भर प्रवृत्तिजन्य कार्य करने के पश्चात पश्चिम दिशा का ही आश्रय ग्रहण करता है। इस प्रकार योग्य पुरुषार्थ करने के पश्चात थोड़ा विश्राम भी आवश्यक है। अतएव प्रत्येक मनुष्य को इस दिशाजन्य प्रवृत्ति के अनुरूप ही वास्तु निर्माण मंी निर्देशित कक्ष या स्थान की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए। वास्तु के नियमानुसार मनुष्य को प्रवास की स्थिति में सिर पश्चिम करके सोना चाहिए।


उत्तर दिशा– यह उच्चता की दिशा है। इस दिशा का स्वामी ग्रह बुध और अधिष्ठाता देव कुबेर हैं। किन्तु ग्रंथान्तर में सोम (चंद्र) को भी देवता माना गया है। इस दिशा का एक नाम उदीची भी है। इस दिशा से सदा विजय की कामना पूर्ति होती है। मनुष्य को सदा उच्चतर विचार, आकांक्षा एवं सुवैज्ञानिक कार्य का संकल्प लेना चाहिए। यह संकल्प राष्ट्रीय भावना के परिप्रेक्ष्य में हो किंवा परिवार समाज को प्रेमरूप एकता सूत्र में बांधने का, ये सभी सफल होते हैं। ऐसी अद्भुत संकल्प शक्ति उत्तर दिशा की प्रभावजन्य शक्ति से ही संभव हो सकती है। अभ्युदय का मार्ग सुगम और सरल हो सकता है। स्वच्छता, सामर्थ्य एवं जय-विजय की प्रतीक यह दिशा देवताओं के वास करने की दिशा भी है, इसीलिए इसे सुमेरु कहा गया है। अतएव मनुष्य मात्र के लिए उत्तरमुखी भवन द्वार आदि का निर्माण कर निवास करने से सामरिक शक्ति, स्वच्छ विचार व व्यवहार का उदय और आत्म संतोषजन्य प्रभाव अनवरत मिलता रहता है। शयन के समय उत्तर दिशा में सिर करके नहीं सोना चाहिए। वैज्ञानिक मतानुसार उत्तरी धु्रव चुम्बकीय क्षेत्र का सबसे शक्तिशाली धु्रव है। उत्तरी धु्रव के तीव्र चुम्बकत्व के कारण मस्तिष्क की शक्ति (बौद्धिक शक्ति) क्षीण हो जाती है। इसलिए उत्तर की ओर सिर करके कदापि नहीं सोना चाहिए।


आग्नेय कोण- पूर्व-दक्षिण दिशाओं से उत्पन्न कोण आग्नेय कोण है। इस कोण के स्वामी ग्रह शुक्र व अधिष्ठाता देव अग्नि हैं। यह कोण अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है। पूर्व दिशाजन्य तेज-प्रताप और दक्षिण दिशाजन्य वीर्य-पराक्रम के संयोग से यह कोण अद्भुत है। वास्तुशास्त्र में इस कोण को अत्यधिक पवित्र माना गया है। गृह निर्माण के समय पाकशाला (भोजन कक्ष) की व्यवस्था इसी कोण में सुनिश्चित की जाती है। भोजन सामग्री अग्नि में पककर देव प्रसाद हो जाती है और इसे ग्रहण करने से मनुष्य की समस्त व्यावहारिक क्रियाएं शुद्ध धातुरूप होने लगती हैं।


नैर्ऋत्य कोण- यह कोण दक्षिण-पश्चिम दिशा से उत्पन्न होता है। इस कोण के स्वामी ग्रह राहु और अधिष्ठाता देव पितर या नैरुति (दैत्य) हैं। यह कोण मनुष्य हेतु कुछ नि:तेजस्विता का कोण है। दक्षिण दिशा वीर्य-पराक्रम और पश्चिम दिशाजन्य शांति-विश्राम की अवस्था के संयोग से उद्भूत यह उदासीन कोण है। दिशा स्वामी ग्रह राहु भी छाया ग्रह है जो सामान्यत: प्रत्येक अवस्था में शुभत्व प्रदान करने में समर्थ नहीं होता है। इसलिए वास्तुशास्त्र के अनुसार नैर्ऋत्य कोण में किसी भी गृहकर्ता हेतु शयन कक्ष नहीं बनाने की बात कही गई है। अन्यथा शयन कक्ष बनाकर उसमें रहने वाला मनुष्य हमेशा विवाद, लड़ाई-झगड़े में फंसा रहने वाल, आलसी या क्रोधी होकर जीवन भर कष्ट भोगने हेतु बाध्य होता है। अतएव इस कोण की दिशा वाले कमरे को सदा भारी वजनी सामान अथवा बराबर प्रयोग में न आने वाले सामानों से भारा या दबा रखना शुभदायक होता है।


वायव्य कोण- पश्चिम-उत्तर दिशा से उद्भूत कोण वायव्य कोण है। इसके स्वामी ग्रह चंद्र और अधिष्ठाता देव वायु हैं। पश्चिम के शुद्ध जलवायु और उत्तर दिशाजन्य उच्चतम विचारों के संयोग से यह कोण उत्पन्न होता है। अतएव इस दिशा से वायु का संचरण निर्बाध गति से गृह के अंदर आता रहे, इसकी पूर्ण व्यवस्था सुनिश्चित करनी चाहिए। इस कोण से आने वाली हवा के मार्ग को अवरुद्ध नहीं करना चाहिए। अवरुद्ध होने से गृहस्वामी मतिभ्रम का शिकार एवं हीनभावना से ग्रस्त हो सकता है।


ईशानकोण– यह कोण उत्तर-पूर्व दिशा से उत्पन्न होता है। इस कोण के स्वामी ग्रह बृहस्पति और अधिष्ठाता देव ईश (रूद्र) या स्वंय बृहस्पति हैं। ईशान का तात्पर्य देवकोण से भी है। इस विदिशा से उच्चतर विचारों, सत् संकल्पों का उदय होना तथा पूर्व दिशा से प्रगति का मार्ग बतलाने जैसी संयोगात्मक संस्तुति का फल ही ईशान कोण है। किसी ने ईशान का देवता शिव (महादेव) को कहा है। यह भी सही है। क्योंकि शिव तो कल्याण का पर्यायवाची शब्द है। अर्थात यह विदिशा उच्चतर विचारों से ओतप्रोत करते हुए कल्याण व प्रगति का मार्ग प्रशस्त करती है। इस कोण में निर्माण कार्य करते समय यह ध्यान रखना आवश्यक होगा कि यह कोण किसी प्रकार भारी वस्तुओं से ढंका नहीं होना चाहिए। यदि इस कोण के कमरे को अध्ययन कक्ष, पूजा स्थल के रूप में प्रयोग किया जाय तो अत्युत्तम होगा, अन्यथा खुला ही रखना चाहिए। ऐसा करने से गृह स्वामी नित्य अपने को तरोताजा एवं स्वयं में अभिनव तेज के प्रभाव को अनुभव करता हुआ अभ्युदय संकल्प का संयोजन करता रहता है।।

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