वास्तु में दिशा का महत्व–


वास्तुशास्त्र, जिसे वेदों में स्थापत्य वेद कहा गया है, में हमें भवन निर्माण संबंधी नियमों का वर्णन मिलता है। वे भवन विशाल मंदिर, राजमहल, सार्वजनिक स्थल या घर हो सकते हैं। घर का निर्माण इस प्रकार हो कि उसमें निवास करने वाले व्यक्तियों को प्रकृति की पोषणकारी शक्ति प्राप्त हो ताकि वे निरोगी रहते हुए बिना बाधा के उत्तरोत्तर विकास करते हुए सफलता प्राप्त कर सकें।

इस लेख के माध्यम से हम दिशा व उसके प्रभाव का अध्ययन करेंगे। जैसा कि हम सब जानते हैं कि ग्रह नौ हैं। ये ग्रह विभिन्न दिशाओं के स्वामी हैं।

सूर्यः सितो भूमिसुतोऽदय राहुः शनिः शशीज्ञश्च बृहस्पतिश्चप्राच्यादितोदिक्षुविदिक्षुचापिदिशामधीशाः क्रमतः प्रदिष्टा ॥49॥..॥ मुहूर्त चिंतामणि

पूर्व दिशा का स्वामी सूर्य है। इस दिशा में भवन शास्त्र के अनुसार उचित प्रकार से बना हो, इस दिशा का विकिरण घर में आता हो, कोई दोष नहीं हो तो उस घर में निवास करने वाले व्यक्तियों को उत्तम स्वास्थ्य, धन-धान्य की प्राप्ति होती है। निर्माण दोषपूर्ण होने पर व्यक्ति इनसे वंचित रहता है। रोगी होने की आशंका अधिक रहती है। 

अग्निकोण का स्वामी शुक्र ग्रह है, यह ग्रह भौतिक सुख व भौतिक उन्नति देता है। यह दिशा शास्त्रानुसार होने पर धन, प्रसिद्धि, भौतिक सुख, इच्छाओं की पूर्ति सुगमता से होती है। घर के इस भाग में गंदगी, कचरा-कूड़ा, शौचालय आदि नहीं होना चाहिए। इसे लक्ष्मी का स्थान भी कहा गया है। घर के दक्षिण की दिशा मंगल की है, इसका सबसे अधिक प्रभाव गृहस्वामी पर होता है, उसकी स्वास्थ्य व प्रगति मुख्यतः इसी दिशा पर आधारित है।

  पूर्व दिशा का स्वामी सूर्य है। इस दिशा में भवन शास्त्र के अनुसार उचित प्रकार से बना हो, इस दिशा का विकिरण घर में आता हो, कोई दोष नहीं हो तो उस घर में निवास करने वाले व्यक्तियों को उत्तम स्वास्थ्य, धन-धान्य की प्राप्ति होती है।      



नैऋत्य दिशा राहु की है। यह दोषपूर्ण होने पर कलह कराती है तथा पितृ का स्थान होने से वंशवृद्धि को प्रभावित करती है। पश्चिम दिशा का स्वामी शनि है। इसका प्रभाव बंधु, पुत्र, धान्य तथा उत्कृष्ट उन्नति पर अधिक होता है। पश्चिमोत्तर दिशा का स्वामी चंद्रमा है। चंद्रमा चंचलता का, मन का, गति का प्रतीक है। यह दिशा नौकर, वाहन, गमन तथा पुत्र को प्रभावित करती है। उत्तर दिशा का स्वामी बुध है। यह दिशा विजय, धन व वृद्धि को प्रभावित करती है। पूर्वोत्तर दिशा का स्वामी बृहस्पति है। घर का यह भाग साफ-सुथरा तथा अनुकूल होने पर सभी कामनाओं की पूर्ति करते हुए आनंद देता है।

इस प्रकार से हम देखते हैं कि घर का प्रत्येक हिस्सा महत्वपूर्ण है तथा अलग-अलग दिशा अलग-अलग बातों को विशेष रूप से प्रभावित करती है। इसलिए घर का प्रत्येक भाग उचित रूप से बना होना चाहिए। पूर्व तथा उत्तर की किरणें घर में सीधे प्रवेश करें तो उसमें निवास करने वाले उत्तरोत्तर प्रगति करते हुए लक्ष्य प्राप्त करते हुए सुखी जीवन व्यतीत कर सकते हैं।


– पूर्वी दिशा अग्नि तत्व का प्रतीक है। इसके अधिपति इंद्रदेव हैं। यह दिशा पुरुषों के शयन तथा अध्ययन आदि के लिए श्रेष्ठ है।

– पश्चिमी दिशा वायु तत्व की प्रतीक है। इसके अधिपति देव वरूण हैं। यह दिशा पुरुषों के लिए बहुत ही अशुभ तथा अनिष्टकारी होती है। इस दिशा में पुरुषों को वास नहीं करना चाहिए।

– उत्तरी-पश्चिमी क्षेत्र यानी वायव्य कोण वायु तत्व प्रधान है। इसके अधिपति वायुदेव हैं। यह सर्वेंट हाउस के लिए तथा स्थाई तौर पर निवास करने वालों के लिए उपयुक्त स्थान हैं।

– आग्नेय; दक्षिणी-पूर्वी कोण में नालियों की व्यवस्था करने से भू-स्वामी को अनेक कष्टों को झेलना पड़ता है। गृह स्वामी की धन-सम्पत्ति का नाश होता है तथा उसे मृत्यु भय बना रहता है।

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नैऋत्य कोण में जल-प्रवाह की नालियां भू-स्वामी पर अशुभ प्रभाव डालती हैं। इस कोण में जल-प्रवाह नालियों का निर्माण करने से भू-स्वामी पर अनेक विपत्तियां आती हैं।

ईशान्नोन्मुख भूखण्ड का दोष एवं उसका निवारण—

दोष :- यदि ईशानमुखी भूखण्ड की उत्तरी दिशा में ऊँची इमारत या भवन हो तो उस घर में निवास करने वाली महिलाएँ 
रोगग्रस्त हो जाती हैं या शीघ्र मृत्यु को प्राप्त होती हैं। इसके साथ ही आर्थिक संकटों का भी सामना करना पड़ता है।

निवारण :- उपरोक्त वास्तु दोषों को दूर करने के लिए उत्तर दिशा वाली ऊँची इमारत और भवन के बीच एक मार्ग बना देना
चाहिए अर्थात् मार्ग के लिए खाली जगह छोड़ दें। 

इससे ऊँची इमारत के कारण जो वेध् उत्पन्न हो रहा है, उसके एवं भूखण्ड के बीच मार्ग बन जाने से वास्तुदोष या वेध् दोष का निवारण हो जाएगा।


ईशान कोण के वास्तु सिद्धांत—


ईशान्नोन्मुख भूखण्ड में भवन बना कर उसमें निवास करने के लिए निम्न वास्तु सिद्धांतों को व्यवहार में लाने से निश्चय ही लाभ प्राप्त होगा।

भवन का मुख्य द्वार उत्तरी या पूर्वी ईशान कोण में ही रखना चाहिए। 

यदि दक्षिण या पश्चिम दिशा में मुख्य द्वार बनाना पड़े तो ये क्रमशः उत्तर या पूर्वी द्वारों की अपेक्षा ऊंचे होने चाहिए।

यदि घर में प्रयोग किया गया जल शौचादि में प्रयुक्त जल के अतिरिक्त अर्थात् घर को धोने के बाद या वर्षा का जल ईशान
कोण के रास्ते से बाहर निकले तो वंश वृद्धि के साथ-साथ ऐश्वर्य भी प्राप्त होता है। 

यदि ईशान्नोन्मुख भूखंड में पूर्व की ओर विस्तार हो तो उस भूखण्ड पर भवन बना कर निवास करने वाले व्यक्ति धनी, यशस्वी
एवं धर्मात्मा होते हैं।

यदि ईशान्नोन्मुख भूखंड के सामने का स्थान नीचा होता है तो धन सम्पदा की वृद्धि होती है।


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