उपाय वास्तु (पञ्च तत्वों का संतुलन)—


हमारे शरीर मे पंचतत्त्व अपनी विशेष भूमिका निभाते हैं। पूरे का पूरा आयुर्वेद पंचतत्त्वों पर आधारित है। ये पंचमूल तत्त्व एक दूसरे तत्त्व की सहायता से शरीर को संचालित करते हैं। एक तत्त्व दूसरे तत्त्वों को उनकी क्रियाओं द्वारा संतुलित करते हुए मूल रूप में लाते हैं। इन तत्त्वों में संतुलन
को ही शारीरिक ;डमजंइवसपेउद्ध संगठन कहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारा शरीर तभी तक स्वस्थ है जब तक मूल तत्त्व संतुलित हो  क्योंकि ये मूल तत्त्व मात्रा में बराबर रहने चाहिए। जब पंचतत्त्वों में कुछ भी गड़बड़ी होती है या किसी तत्त्व की कमी आ जाने पर या किसी एक
तत्त्व में त्राुटि आने पर दूसरे शरीर का पोषण करने वाले तत्त्वों में गडबडी आ जाती है। उसी के कारण रोग की उत्पत्ति होती है। उसी प्रकार से भवन के वास्तु के तत्वों में से किसी भी तत्व की गड़वड़ी से अन्य तत्वों का गडवडाना स्वभाविक है। जिस के प्रभाव के रहते उस भवन में रहने वाले जातकों पर इसका प्रभाव नकारात्मक पड़ना शुरू हो जाता है। आइये जानते हैं कौन से तत्व का क्या प्रभाव हमारे ऊपर पड़ता है तथा उसका निवारण हमें कैसे करना चाहिए।


पांच तत्त्व इस प्रकार हैं:- 


.. पृथ्वी — यदि इस तत्त्व में कुछ कमी आ जाये तो शरीर अचे तन बन जाता है। क्योंकि इस तत्त्व से शरीर के सभी जैविक बल भी निष्क्रिय हो जाते हैं। अतः उन तत्त्वों को चेतन व सक्रिय रखने के लिए शक्ति की आवश्यकता है। अधिक मोटे, वजनवाले, मांसल, चर्बीवाले मनुष्यों में इसी तत्त्व का आधिपत्य होता है। पृथ्वी तत्त्व मे शरीर का स्थूल ढांचा, अस्थि व मांस की सत्ता पूर्ण रूप है। पृथ्वी तत्त्व वाला व्यक्ति मंद, सुस्त व अधिक कामी होता है। वे लोेग संघर्ष से दूर रहते हैं। जब हमारे शरीर में यह तत्त्व गड़बड़ी को प्राप्त होता है तो ऐसे लोग स्वार्थी व स्वार्थीपन का आनंद लेते हैं,
यह तटस्थ तत्त्व है। वास्तुशास्त्रा में दक्षिणी दिशा में च्ंहम 68 पंचतत्त्व के दोष एवं उपाय वास्तु द्वारा भार बढ़ाने को बल दिया जाता है। शायद इसी
कारण दक्षिण दिशा में सिर करके सोना स्वास्थ्य व सुखवर्धक माना गया है। भूमि के पांच गुण शब्द, स्पर्श, रूप, स्वाद तथा आकार माने गये हैं। आकार व भार के साथ गंध, जिसका संबंध नासिका की घ्राण शक्ति से हैं, पृथ्वी का विशिष्ट गुण है। पृथ्वी का स्वामी गणेश भगवान को माना गया है। कहीं भगवान वराह या भूदेवी को पृथ्वी का आधिपत्य देने की बात भी कही गई है। देह में पृथ्वी तत्त्व से संबंधित ऊर्जा की क्षतिपूर्ति हेतु
आयुर्वेद अनुसार नंगे पाव जूते उतारकर घास या फर्श पर चलें।


.. जल —यह तत्त्व मूत्रापिंड स्त्री-पुरूष के प्रजनन अंग लासिका गं्रथियों का केंद्र हैं। नसों में सक्रियता, प्रतिकार द्रव्य, यौन ग्रंथियों के
चेतना के दोष व सुवीर्य मांस से अस्थि व मज्जा को उत्पन्न करता है और शरीर को स्वस्थता प्रदान करता है। यह तत्त्व शरीर के जीवन प्रवाह
को संतुलित करता हुआ सुरक्षित करता है। इसका स्वभाव शीतल है। हमारे शरीर में कम से कम 75 प्रतिशत तक पानी रहता है। अतः शरीर के तापमान को बनाए रखने तथा खून की क्रियाओं में जल का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। विभिन्न प्राणियों की जल संबंधी आवश्यकता
तथा विभिन्न शरीरों में जल की मात्रा भिन्न हुआ करती है। विद्वानों ने जल से चार गुण शब्द, स्पर्श, रूप तथा रस (स्वाद) माने हैं। रस या स्वाद का
संबंध हमारी जिह्वा से है। वर्षा, नदी, तड़ाग, झील, प्रपात और समुद्र ये सभी जल के प्रतिनिधि हैं। पशु व पौधों को भी जल की आवश्यकता है कि मनुष्य यदि जल को जीवन का मुख्य आधार माने तो आश्चर्य कैसा? हमारे रक्त में आॅक्सीजन, हिमोग्लोबिन तथा जल का मिश्रण ही तो है। जल तथा जल की तरंगों का प्रयोग विद्युत ऊर्जा उत्पादन मे  होता है। संसार की सभी सभ्यताएं नदियो के किनारों पर विकसित हुई हैं। जल के देवता ब्रह्मा को माना गया है। कुछ पुराणो में इन्द्र तथा वरूण को भी जल का देवता कहा गया है। देह में जल तत्त्व से संबंधित ऊर्जा की क्षति पूर्ति हेतू शुद्ध व स्वच्छ जल पर्याप्त मात्रा में पीना चाहिए।


.. वायु —इस तत्त्व का केन्द्र छाती, फेफड़े, हृदय तथा श्वसन ग्रंथि है। वायु, शरीर का प्रमुख संरक्षक है तथा सामूहिक बल उत्पन्न करती हैं। वायु का पूरा प्रभाव स्वभाव मन (हृदय) पर होता है यह मुख्य तत्त्व है। वायु शरीर के प्रत्येक भाग को संचालित करती है। वायु के द्वारा श्वसन मल, मूत्रा की क्रियाएं होती हैं व हृदय गति करता है। यह आवाज करती हुई पित्त व कफ को गति दे ती है जो कि हमे आक्सीजन की आवश्यकता दर्शाता है। यदि मानव मस्तिष्क मे आक्सीजन की कमी हो जाए तो बहुत सी कोशिकाएं नष्ट हो जाऐंगी तथा मनुष्य जड़बुद्धि व अपंग हो जायेगा। इसी प्रकार वनस्पति संवर्धन में नाइट्रोजन की प्रमुख भूमिका है। नाइट्रोजन के प्रभाव से फल सब्जियों के उत्पादन में वृद्धि होती है। च्ंहम 69 पंचतत्त्व के दोष एवं उपाय वास्तु द्वारा विद्वानों ने वायु के दो गुण शब्द व स्पर्श भी माना है। स्पर्श का संबंध त्वचा से भी है। सच तो ये है कि संवेदनशील नाड़ी तंत्रा तथा मनुष्य की चेतना भी श्वास प्रक्रिया से जुड़ी है जिसका आधार वायु है। विद्वानों ने वायु का अधिष्ठाता भगवान विष्णु (पालनकत्र्ता) को माना है। देह में वायु तत्त्व से संबंधित ऊर्जा की क्षति पूर्ति हेतू पेड़-पौधों के बीच घूमना व गहरी साँस लेनी चाहिए।


4. आकाश—-आकाश तत्त्व शरीर का पोषण करता है। शरीर के विष को बाहर निकाल कर निरोग करता है। थाईराइड टांसिल, लाटरस आदि पर नियंत्राण करता हुआ मन का पोषण करता है। यह तत्त्व प्रेम भावुकता का निर्माण करता है।स्त्रिायो  मे यह तत्त्व अधिक पाया जाता है। आकाश तत्त्व में गड़बड़ी होने से हार्ट अटैक, लकवा, मूर्छा आदि रोग हो जाते हैं। आकाश तत्त्व पिट्यूटरी ग्रंथि व पिनियल ग्रंथि को संचालित करता है। पिट्यूटरी ग्रंथि दृष्टि, श्रवण तथा स्मरण शक्ति को नियंत्रित करती है। पीनीयल ग्रंथि चेतना व भावुकता को नियंत्रित करती है। आकाश का अंबर तो प्रभु की करूणा
सरीखा असीम और अनन्त है। मात्रा धरती ही नहीं अपितु सभी ग्रह नक्षत्रा या समूल ब्रह्माण्ड आकाश में स्थित है फिर वहां स्थान का अभाव नहीं है।
वे द पुराणों मे  शब्द, अक्षर व नाद को ब्रह्म रूप माना गया है। निश्चय ही आकाश मे  होने वाली गतिविधियो ं से गुरूत्वाकर्षण, प्रकाश रश्मि, ऊष्मा, चुम्बकीय क्षेत्रा तथा प्रभाव तरंगों में परिवर्तित होता है। यह परिवर्तन जीवन को भी प्रभावित किया  करता है। आकाश, अवकाश रिक्त स्थान का
महत्त्व कभी भूलना नहीं चाहिए। विद्वानों ने आकाश का देवता भोलेशंकर (शिवजी) को माना है। देह मे आकाश तत्त्व की वृद्धि के लिए आकाश में तारों को देंखें।
  
5. अग्नि –सूर्य पर निरंतर जलने वाली अग्नि, सभी ग्रहो को प्रकाशित करती है। पृथ्वी पर जीवन पोषण के लिए अनुकूल परिस्थिति बनाती है। शब्द/स्पर्श के साथ, रूप को भी अग्नि का गुण माना गया है। रूप दर्शन का संबंध नेत्रो  से है। अन्य शब्दो ं मे ऊर्जा का मुख्य स्रो त अग्नि तत्त्व है। सौर ऊर्जा, आणविक शक्ति, उष्मा-ऊर्जा का आधार अग्नि ही है। ऊर्जा की आवश्यकता मनुष्य, पशु तथा वनस्पति जगत सभी को होती है। गर्मी तथा प्रकाश के अभाव में जीवन नष्ट हो जाऐगा। सूर्य दे व या अग्नि को इसका दे वता माना गया है। इस तत्त्व को केंद्र जठर तिल्ली व यकृत है। अग्निरस, पाचक रस, पित्त रस को उत्पन्न करता है। अग्नि तत्त्व शरीर में तापमान को बनाए रखता है। सभी अंगों को सक्रिय रखता है व चर्बी, मांस व खून के निर्माण में सहायता करता है। यह तत्त्व जल को उष्णता प्रदान कर दृष्टि को नियंत्रित च्ंहम 7. पंचतत्त्व के दोष एवं उपाय वास्तु द्वारा करता है। आहार का पाचन व चेहरे को सुंदरता प्रदान करता है। इस तत्त्व में कमी आ जाने पर पीलिया, एनीमिया, अजीर्ण, बेहोशी, आंखों की कमजोरी व आंखों के रोग व एसिडिटी (गैस) आदि बीमारियां उत्पन्न हो जाती हैं। पंचभूतो- पृथ्वी, जल, वायु, आकाश व अग्नि का प्रभाव मानव समाज की जीवन शैली को प्रभावित करता है। मात्रा मनुष्य की क्यों, इन तत्त्वों का प्रभाव सभी जीवों पर पड़ता है। पशु-पक्षी भी जल, वायु तथा प्रकाश से जीवन पाते हैं। इन पांच तत्त्वों का प्रभाव हमारे कार्य, प्रारब्ध, भाग्य तथा आचरण पर भी पड़ता हैं। जल यदि सुख-संतोष देता है, संबंधों की ऊष्मा सुख बढ़ाती है तो वायु देह में प्राण वायु बनकर डोलती है। आकाश महत्वाकांक्षा जगाता है तो पृथ्वी सहनशीलता व यथार्थ का पाठ पढ़ाती है। देह में अग्नितत्त्व बढ़ने पर जल की मात्रा बढ़ाकर उसका संतुलन करना चाहिए। इसी प्रकार वायु दोष होने पर आकाश तत्त्व बढ़ाना उत्तम होता है।


 पं. दयानन्द शास्त्री 
विनायक वास्तु एस्ट्रो शोध संस्थान ,  
पुराने पावर हाऊस के पास, कसेरा बाजार, 
झालरापाटन सिटी (राजस्थान) ..6…
मो. नं. …. .

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