*** समस्त विद्याओं की भण्डागार-गायत्री महाशक्ति *****
“”””ॐ र्भूभुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्”””
गायत्री संसार के समस्त ज्ञान-विज्ञान की आदि जननी है । वेदों को समस्त प्रकार की विद्याओं का भण्डार माना जाता है, वे वेद गायत्री की व्याख्या मात्र हैं । गायत्री को ‘वेदमाता’ कहा गया है । चारों वेद गायत्री के पुत्र हैं । ब्रह्माजी ने अपने एक-एक मुख से गायत्री के एक-एक चरण की व्याख्या करके चार वेदों को प्रकट किया ।
‘ॐ भूर्भवः स्वः’ से-ऋग्वेद,
‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ से-यर्जुवेद,
‘भर्गोदेवस्य धीमहि’ से-सामवेद और
‘धियो योनः प्रचोदयात्’ से अथर्ववेद की रचना हुई ।
इन वेदों से शास्त्र, दर्शन, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, सूत्र, उपनिषद्, पुराण, स्मृति आदि का निर्माण हुआ । इन्हीं ग्रन्थों से शिल्प, वाणिज्य, शिक्षा, रसायन, वास्तु, संगीत आदि ८४ कलाओं का आविष्कार हुआ । इस प्रकार गायत्री, संसार के समस्त ज्ञान-विज्ञान की जननी ठहरती है । जिस प्रकार बीज के भीतर वृक्ष तथा वीर्य की एक बूंद के भीतर पूरा मनुष्य सन्निहित होता है, उसी प्रकार गायत्री के २४ अक्षरों में संसार का समस्त ज्ञान-विज्ञान भरा हुआ है । यह सब गायत्री का ही अर्थ विस्तार है ।
मंत्रों में शक्ति होती है । मंत्रों के अक्षर शक्ति बीज कहलाते हैं । उनका शब्द गुन्थन ऐसा होता है कि उनके विधिवत् उच्चारण एवं प्रयोग से अदृश्य आकाश मण्डल में शक्तिशाली विद्युत् तरंगें उत्पन्न होती हैं, और मनःशक्ति तरंगों द्वारा नाना प्रकार के आध्यात्मिक एवं सांसारिक प्रयोजन पूरे होते हैं । साधारणतः सभी विशिष्ट मंत्रों में यही बात होती है । उनके शब्दों में शक्ति तो होती है, पर उन शब्दों का कोई विशेष महत्वपूर्ण अर्थ नहीं होता । पर गायत्री मंत्र में यह बात नहीं है । इसके एक-एक अक्षर में अनेक प्रकार के ज्ञान-विज्ञानों के रहस्यमय तत्त्व छिपे हुए हैं । ‘तत्-सवितुः – वरेण्यं-‘ आदि के स्थूल अर्थ तो सभी को मालूम है एवं पुस्तकों में छपे हुए हैं । यह अर्थ भी शिक्षाप्रद हैं । परन्तु इनके अतिरिक्त ६४ कलाओं, ६ शास्त्रों, ६ दर्शनों एवं ८४ विद्याओं के रहस्य प्रकाशित करने वाले अर्थ भी गायत्री के हैं । उन अर्थों का भेद कोई-कोई अधिकारी पुरुष ही जानते हैं । वे न तो छपे हुए हैं और न सबके लिये प्रकट हैं ।
इन २४ अक्षरों में आर्युवेद शास्त्र भरा हुआ है । ऐसी-ऐसी दिव्य औषधियों और रसायनों के बनाने की विधियाँ इन अक्षरों में संकेत रूप से मौजूद हैं जिनके द्वारा मनुष्य असाध्य रोगों से निवृत्त हो सकता है, अजर-अमर तक बन सकता है । इन २४ अक्षरों में सोना बनाने की विधा का संकेत है । इन अक्षरों में अनेकों प्रकार के आग्नेयास्त्र, वरुणास्त्र, नारायणास्त्र, पाशुपतास्त्र, ब्रह्मास्त्र आदि हथियार बनाने के विधान मौजूद हैं । अनेक दिव्य शक्तियों पर अधिकार करने की विधियों के विज्ञान भरे हुए हैं । ऋद्धि-सिद्धियों को प्राप्त करने, लोक-लोकान्तरों के प्राणियों से सम्बन्ध स्थापित करने, ग्रहों की गतिविधि तथा प्रभाव को जानने, अतीत तथा भविष्य से परिचित होने, अदृश्य एवं अविज्ञात तत्त्वोंको हस्तामलकवत् देखने आदि अनेकों प्रकार के विज्ञान मौजूद हैं । जिकी थोड़ी सी भी जानकारी मनुष्य प्राप्त करले तो वह भूलोक में रहते हुए भी देवताओं के समान दिव्य शक्तियों से सुसम्पन्न बन सकता है । प्राचीन काल में ऐसी अनेक विद्याएँ हमारे पूर्वजों को मालूम थीं जो आज लुप्त प्रायः हो गई हैं । उन विद्याओं के कारण हम एक समय जगद्गुरु, चक्रवर्ती शासक एवं स्वर्ग-सम्पदाओं के स्वामी बने हुए थे । आज हम उनसे वञ्चित होकर दीन-हीन बने हुए हैं ।
आवश्यकता इस बात की है कि गायत्री महामन्त्र में सन्निहित उन लुप्तप्राय महाविद्याओं को खोज निकाला जाय, जो हमें फिर से स्वर्ग- सम्पदाओं का स्वामी बना सके । यह विषय सर्वसाधारण का नहीं है । हर एक का इस क्षेत्र में प्रवेश भी नहीं है । अधिकारी सत्पात्र ही इस क्षेत्र में कुछ अनुसंधान कर सकते हैं और उपलब्ध प्रतिफलों से जनसामान्य को लाभान्वित करा सकते हैं ।
गायत्री के दोनों ही प्रयोग हैं । वह योग भी है और तन्त्र भी । उससे आत्म-दर्शन और ब्रह्मप्राप्ति भी होती है तथा सांसारिक उपार्जन-संहार भी । गायत्री-योग दक्षिण मार्ग है- उस मार्ग से हमारे आत्म-कल्याण का उद्देश्य पूरा होता है ।
दक्षिण मार्ग का आधार यह है कि- विश्वव्यापी ईश्वरीय शक्तियों को आध्यात्मिक चुम्बकत्व से खींच कर अपने में धारण किया जाय, सतोगुण को बढ़ाया जाय और अन्तर्जगत् में अवस्थित पञ्चकोष, सप्त प्राण, चेतना चतुष्टय, षटचक्र एवं अनेक उपचक्रों, मातृकाओं, ग्रन्थियों, भ्रमरों, कमलों, उपत्यिकाओं को जागृत करके आनन्ददायिनी = अलौकिक शक्तियों का आविर्भाव किया जाय ।
गायत्री-तन्त्र वाम मार्ग है- उससे सांसारिक वस्तुएँ प्राप्त की जा सकती हैं और किसी का नाश भी किया जा सकता है । वाम मार्ग का आधार यह है कि-” दूसरे प्राणियों के शरीरों में निवास करने वाली शक्ति को इधर से उधर हस्तान्तरित करके एक जगह विशेष मात्रा में शक्ति संचित कर ली जाय और उस शक्ति का मनमाना उपयोग किया जाय ।”
तन्त्र का विषय गोपनीय है, इसलिए गायत्री तन्त्र के ग्रन्थों में ऐसी अनेकों साधनाएँ प्राप्त होती हैं, जिनमें धन, सन्तान, स्त्री, यश, आरोग्य, पदप्राप्ति, रोग-निवारण, शत्रु नाश, पाप-नाश, वशीकरण आदि लाभों का वर्णन है और संकेत रूप से उन साधनाओं का एक अंश बताया गया है । परन्तु यह भली प्रकार स्मरण रखना चाहिये कि इन संक्षिप्त संकेतों के पीछे एक भारी कर्मकाण्ड एवं विधिविधान है । वह पुस्तकों में नहीं वरन् अनुभवी साधना सम्पन्न व्यक्तियों से प्राप्त होता है, जिन्हें सद्गुरु कहते हैं ।
* गायत्री की २४ शक्ति
गायत्री मंत्र में चौबीस अक्षर हैं । तत्त्वज्ञानियों ने इन अक्षरों में बीज रूप में विद्यमान उन शक्तियों को पहचाना जिन्हें चौबीस अवतार, चौबीस ऋषि, चौबीस शक्तियाँ तथा चौबीस सिद्धियाँ कहा जाता है । देवर्षि, ब्रह्मर्षि तथा राजर्षि इसी उपासना के सहारे उच्च पदासीन हुए हैं । ‘अणोरणीयान महतो महीयान’ यही महाशक्ति है । छोटे से छोटा चौबीस अक्षर का कलेवर, उसमें ज्ञान और विज्ञान का सम्पूर्ण भाण्डागार भरा हुआ है । सृष्टि में ऐसा कुछ भी नहीं, जो गायत्री में न हो । उसकी उच्चस्तरीय साधनाएँ कठिन और विशिष्ट भी हैं, पर साथ ही सरल भी इतनी है कि उन्हें हर स्थिति में बड़ी सरलता और सुविधाओं के साथ सम्पन्न कर सकता है । इसी से उसे सार्वजनीन और सार्वभौम माना गया । नर-नारी, बाल-वृद्ध बिना किसी जाति व सम्प्रदाय भेद के उसकी आराधना प्रसन्नता पूर्वक कर सकते हैं और अपनी श्रद्धा के अनुरूप लाभ उठा सकते हैं ।
‘गायत्री संहिता’ में गायत्री के २४ अक्षरों की शाब्दिक संरचना रहस्ययुक्त बतायी गयी है और उन्हें ढूँढ़ निकालने के लिए विज्ञजनों को प्रोत्साहित किया गया है । शब्दार्थ की दृष्टि से गायत्री की भाव-प्रक्रिया में कोई रहस्य नहीं है । सद्बुद्धि की प्रार्थना उसका प्रकट भावार्थ एवं प्रयोजन है । यह सीधी-सादी सी बात है जो अन्यान्य वेदमंत्रों तथा आप्त वचनों में अनेकानेक स्थानों पर व्यक्त हुई है । अक्षरों का रहस्य इतना ही है कि साधक को सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने के लिए पे्रेरित करते हैं । इस प्रेरणा को जो जितना ग्रहण कर लेता है वह उसी अनुपात से सिद्ध पुरुष बन जाता है । कहा गया है-
चतुविंशतिवर्णेर्या गायत्री गुम्फिता श्रुतौ ।
रहस्ययुक्तं तत्रापि दिव्यै रहस्यवादिभिः॥ गायत्री संहिता -८५
अर्थात्-वेदों में जो गायत्री चौबीस अक्षरों में गूँथी हुई है, विद्वान् लोग इन चौबीस अक्षरों के गूँथने में बड़े-बड़े रहस्यों को छिपा बतलाते हैं ।
गायत्री की २४ शक्तियों की उपासना करने के लिए शारदा तिलकतंत्र का मार्गदर्शन इस प्रकार है ।
ततः षडङ्गान्यभ्र्यचेत्केसरेषु यथाविधि ।
प्रह्लादिनी प्रभां पश्चान्नित्यां विश्वम्भरां पुनः॥
विलासिनी प्रभवत्यौ जयां शांतिं यजेत्पुनः ।
कान्तिं दुर्गा सरस्वत्यौ विश्वरूपां ततः परम्॥
विशालसंज्ञितामीशां व्यापिनीं विमलां यजेत् ।
तमोऽपहारिणींसूक्ष्मां विश्वयोनिं जयावहाम्॥
पद्मालयां परांशोभां पद्मरूपां ततोऽर्चयेत् ।
ब्राह्माद्याः सारुणा बाह्यं पूजयेत् प्रोक्तलक्षणाः॥ -शारदा० २१ ।२३ से २६
अर्थात्-पूजन उपचारों से षडंग पूजन के बाद प्रह्लादिनी, प्रभा, नित्या तथा विश्वम्भरा का यजन (पूजन) करें । पुनः विलासिनी, प्रभावती, जया और शान्ति का अर्चन करना चाहिए । इसके बाद कान्ति, दुर्गा, सरस्वती और विश्वरूपा का पूजन करें । पुनः विशाल संज्ञा वाली-ईशा (विशालेशा), ‘व्यापिनी’ और ‘विमला’ का यजन करना चाहिए । इसके अनन्तर ‘तमो’, ‘पहारिणी’, ‘सूक्ष्मा’, ‘विश्वयोनि’, ‘जयावहा’, ‘पद्मालया’, ‘पराशोभा’ तथा पद्मरूपा आदि का यजन करें । ‘ब्राह्मी’ ‘सारुणा’ का बाद में पूजन करना चाहिए ।
गायत्री के चौबीस अक्षरों में जो पृथक-पृथक शक्तियाँ हैं, उनके नाम शास्रकारों ने प्राचीन काल की आध्यात्मिक भाषा में बतलाये हैं । उस समय हर शक्ति को एक देवी के रूप में अलंकृत किया जाता था । देवी का अर्थ अब तो अन्तरिक्ष वासिनी अदृश्य महिला विशेष मानने का भ्रम चल पड़ा है, पर प्राचीन काल में देवी शब्द दिव्य शक्तियों के लिए ही प्रयोग किया जाता था । गायत्री की २४ शक्तियों का शास्रीय उल्लेख इस प्रकार है-
वर्णानां शक्तयः काश्च ताः शृणुष्व महामुने ।
वामदेवी प्रिया सत्या विश्वा भद्रविलासिनी॥
प्रभावती जया शान्ता कान्ता दुर्गा सरस्वती ।
विद्रुमा च विशालेशा व्यापिनी विमला तथा॥
तमोऽपहारिणी सूक्ष्माविश्वयोनिर्जया वशा ।
पद्मालया परा शोभा भद्रा च त्रिपदा स्मृता॥
चतुर्विशतिवर्णानां शक्तयः समुदाहृताः॥ -देवी भागवत
अर्थात् – हे मुनि! अब सुनो कि गायत्री के २४ अक्षरों में कौन-कौन २४ शक्तियाँ भरी पड़ी हैं ।
(१) वामदेवी
(२)प्रिया
(३) सत्या
(४) विश्वा
(५) भद्र विलासिनी
(६) प्रभावती
(७) शान्ता
(८) कान्ता
(९) दुर्गा
(१०) सरस्वती
(११) विदु्रमा
(१२) विशालेशा
(१३) व्यापिनी
(१४) विमला
(१५) तमोपहारिणी
(१६) सूक्ष्मा
(१७) विश्वयोनि
(१८) जया
(१९) यशा
(२०) पद्मालया
(२१) परा
(२२) शोभा
(२३) भद्रा
(२४) त्रिपदा ।
अन्यान्य ग्रंथों में गायत्री के एक-एक अक्षर के साथ जुड़ी हुई शक्तियों का वर्णन कई प्रकार से हुआ है । कहीं उन्हें शापित, कहीं मातृका, कहीं कला आदि नामों से संबोधित किया गया है ।
* गायत्री की २४ अक्षर
गायत्री महामंत्र में सम्पूर्ण जड़-चेतनात्मक जगत का ज्ञान बीज रूप से पाया जाता है । मस्तिष्क के मूल में से जो मुख्य .4 ज्ञान तन्तु निकल कर मनुष्य के देह तथा मन का संचालन करते हैं उनका गायत्री .4 अक्षरों से सूक्ष्म सम्बन्ध है । गायत्री के अक्षरों के विधिवत् उच्चारण से शरीर के भिन्न-भिन्न स्थानों में पाये जाने वाले सूक्ष्म चक्र, मातृका, ग्रन्थियाँ, पीठ, स्थान आदि जागृत होते हैं । जिस प्रकार टाइपराइटर मशीन पर उँगली रखते ही सामने रखे कागज पर वे ही अक्षर छप जाते हैं, उसी प्रकार मुख, कण्ठ और तालु में छुपी हुई अनेक ग्रन्थियों की चाबियाँ रहती हैं । गायत्री अक्षरों का क्रम से संगठन ऐसा विज्ञानुकूल है कि उन अक्षरों के उच्चारण से शरीर के उन गुप्त स्थानों पर दबाव पड़ता है और वे जागृत होकर मनुष्य की अनेक सुषुप्त शक्तियों को कार्यशाला बना देते हैं ।
गायत्री मंत्र के भीतर अनके प्रकार के ज्ञान-विज्ञान छुपे हुये हैं । अनेक प्रकार के दिव्य अस्त्र- शस्त्र, बहुमूल्य धातुएँ बनाना, जीवन दात्री औषधियाँ, रसायन तैयार करना, वायुयान जैसे यंत्र बनना, शाप और वरदान देना, प्राण-विद्या, कुण्डलिनी चक्र, दश महाविद्या, महामातृका, अनेक प्रकार की योग सिद्धियाँ गायत्री-विज्ञान के अन्तर्गत पाई जाती है । उन विधाओं का अभ्यास करके हमारे पूर्वजों ने अनेक प्रकार की सिद्धि-ऋद्धियाँ प्राप्त की थीं । आज भी हम गायत्री साधना द्वारा उन सब विधाओं को प्राप्त करके अपने प्राचीन गौरव क पुनस्र्थापना कर सकते हैं ।
”गायत्री सनातन अनादि काल का मंत्र है । पुराणों में बताया गया है कि” सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी को आकाशवाणी द्वारा गायत्री-मंत्र की प्राप्ति हुई थी । उसी मंत्र की साधना करके उनको सृष्टि रचने की शक्ति मिली थी । गायत्री के जो चार चरण प्रसिद्ध हैं उन्हीं की व्याख्या स्वरूप ब्रह्माजी को चार वेद मिले हैं और उनके चार मुख हुये थे । इसमें सन्देह नहीं कि जिसने गायत्री के मर्म को भली प्रकार जान लिया है उसने चारों वेदों को जान लिया ।
गायत्री साधना करने से हमारे सूक्ष्म शरीर और अन्तःकरण पर जो मल विक्षेप के आवरण जमे होते हैं वे दूर होकर आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रकट होता है । आत्मा के शुद्ध स्वरूप द्वारा ही सब प्रकार की समृद्धियाँ और सम्पत्तियाँ प्राप्त हो सकती हैं । दर्पण की तरह आत्मा को शुद्ध बनाने से उसके सब प्रकार के मल दूर हो जाते हैं, और मनुष्य अन्तःकरण निर्मल, प्रकाशवान बनकर परमेश्वर की समस्त शक्तियों, समस्त गुणों, सर्व सामर्थों, सब सिद्धियों से परिपूर्ण हो जाता है ।
गायत्री के तत्त्वरूप .4 वर्ण में .4 प्रकार की आत्मतत्त्व-रूपता स्थित हैं । चौबीस तत्त्व के बाहर और भीतर रहकर उसे अपने अन्तर में स्थित करने से मनुष्य ”अन्तर्यामी” बन जाता है । सब ज्ञानों में से यह अन्तर्यामी-विज्ञान सर्वश्रेष्ठ है, जो गायत्री की साधना द्वारा ही प्राप्त होता है ।
जो आत्मा के भीतर है और आत्मा के बाहर भी विद्यमान है, जो आत्मा के भीतर और बाहर रहकर उसका शासन करता है, वही वास्तविक आत्मा है, वही अमृत है, वही अन्तर्यामी है । सर्वान्तरयामी आत्मा सम्पूर्ण ब्रह्मांड का आयतन अर्थात् प्रतिष्ठा है, ऐसा निश्चय होने के पश्चात् ब्रह्मांड के .4 तत्त्वों का आकलन करना सम्भव हो जाता है । इस प्रकार अन्य सब विज्ञान अन्तर्यामी विज्ञान से न्यून श्रेणी के हैं । इस बात की पुष्टि में ‘योगी याज्ञवल्क्य’ में कहा गया है कि ”जो स्वयं अदृष्ट, अश्रुत, अमूर्त, अविज्ञात है वही अन्तर्यामी है, वही अमृत-स्वरूप है, और इसी कारण वह तुम्हारे मेरे और अन्य सबके आत्माओं का पूज्य है । हे गौतम! इस विज्ञान के अतिरिक्त जो अन्य विज्ञान हैं वे सब दुःखदायी हैं । अन्तर्यामी का विज्ञान ही यथार्थ विज्ञान हैं । गायत्री जिन चौबीस तत्वात्म्क विज्ञानों का बोध कराती है वे इस अन्तर्यामी विज्ञान के सहायक होने से ही श्रेष्ठ हैं ।
अन्तर्यामी ब्रह्म का तत्त्वबोध कर लेना कोई साधारण काम नहीं है, क्योंकि यह विषय बहुत ही सूक्ष्म है । स्थूल शक्तियों का विचार करने वालों के लिये उसका यथार्थ बोध हो सकना असम्भव ही है । योग के आचरण से बुद्धि को सूक्ष्म बनाकर सुविचार और निर्विचार समापत्ति द्वारा (चित्त जिस विषय में संलग्न होता है और स्फटिक मणि जैसा प्रतीत होता है उस तदाकारापत्ति को ही ‘समापत्ति’ कहा जाता है) सूक्ष्म विषयों की प्रतीत की जाती है । सूक्ष्मता की अवधि अलिंग तक होती है, अलिंग ही सर्व प्रधान तत्व है । जिसका किसी में लय हो सके ऐसा कोई तत्व ही जहाँ नहीं है, अथवा वह किसी के साथ मिल सके ऐसा भी कुछ जहाँ शेष नहीं रहता, वही प्रधान तत्त्व होता है । समापत्ति के विषय को समझाते हुए योग शास्त्रकार ऋषियों ने कहा है कि ”स्थूल अर्थों में अवितर्क और निर्वितर्क और सूक्ष्म अर्थ में सविचार और निर्विचार’ इन चार प्रकार की समाधियों की आवश्यकता होती है, और इस समाधि की सूक्ष्मता आलिंग प्रधान तक होती है । इस समापत्ति से .4 तत्त्व रूपावस्था जानने में आती हैं ।”
हिरण्य गर्भ जैसा सूक्ष्मतर अथवा अन्तर्यामी तत्त्व जानना हो तो उस सुख स्वरूप परमात्मा को योगाभ्यास द्वारा प्राप्त करना ही परम पुरुषार्थ है । इसके लिए गायत्री के .4 अक्षरों से प्राप्त अति सूक्ष्म ज्ञान सर्वाधिक श्रेष्ठ है । साधना की सफलता के रहस्य गोपथ ब्राह्मण में अच्छी तरह समझाये गये हैं । इसके अन्तर्गत मौदगल्य और मैत्रेय संवाद में गायत्री तत्त्वदर्शन पर ..-.5-.6 कण्डिकाओं में विस्तृत प्रकाश डाला गया है ।
मैत्रेय पूछते हैं-
” सवितुर्वरेण्यम् भर्गोदेवस्य, कवयः किश्चित आहुः”
अर्थात् हे भगवान्! यह बताइये कि ”सवितुर्वरेण्यम् भर्गोदेवस्य” इसका अर्थ सूक्ष्मदर्शी विद्वान क्या करते हैं ।
इसका उत्तर देते हुए मौदगल्य कहते हैं- ”सवित प्रविश्यताः प्रयोदयात् यामित्र एति ।” अर्थात्-सविता की आराधना इसलिए है कि वे बुद्धि क्षेत्र में प्रवेश करके उसे शुद्ध करते और सत्कर्म परायण बनाते हैं ।
वे आगे और भी कहते हैं-”कवय देवस्य सवितुः वरेण्यं भर्ग अन्न पाहु” अर्थात् तत्त्वदर्शी सविता का आलोक अन्न में देखते हैं । अन्न की साधना में जो प्रखर पवित्रता बरती जाती है, उसे सविता का अनुग्रह समझा जा सकता है ।
आगे और भी स्पष्ट किया गया है-”मन एवं सविता वाकृ सावित्री” अर्थात् परम तेजस्वी सविता जब मनः-क्षेत्र में प्रवेश करते हैं जो जिह्वाको प्रभावित करते हैं और वचन के दोनों प्रयोजनों में जिह्वा पवित्रता का परिचय देती है । इस तथ्य को आगे और भी अधिक स्पष्ट किया गया है -”प्राण एव सविता अन्न सावित्री, यत्र ह्येव सविता प्राणस्तरन्नम् । यत्र वा अन्न तत् प्राण इत्येते ।” अर्थात्- सविता प्राण है और सावित्री अन्न । जहाँ अन्न है वहाँ प्राण होगा और जहाँ प्राण है वहाँ अन्न ।
प्राण जीवन, जीवट, संकल्प एवं प्रतिभा का प्रतीक है । यह विशिष्टता पवित्र अन्न की प्रतिक्रिया है । प्राणवान व्यक्ति पवित्र अन्न ही स्वीकार करते हैं एवं अन्न की पवित्रता को अपनाये रहने वाले प्राणवान बनते हैं ।
सविता सूक्ष्म भी है और दूरवर्ती भी, उसका निकटतम प्रतीक यज्ञ है । यज्ञ को सविता कहा गया है । उसकी पूर्णता भी एकाकीपन में नहीं है । सहधर्मिणी सहित यज्ञ ही समग्र एवं समर्थ माना गया है । यज्ञपत्नी दक्षिणा है । दक्षिणा को सावित्री कह सकते हैं । ..वीं कण्डिका में कहा गया है-
”यज्ञ एवं सविता दक्षिणा सावित्री”
अर्थात् यज्ञ सविता है और दक्षिणा सावित्री । इन दोनों को अन्योयोश्रित माना जाना चाहिए । यज्ञ के बिना दक्षिणा की और दक्षिणा के बिना यज्ञ की सार्थकता नहीं होती है । यह यज्ञ का तत्त्वज्ञान उदार परमार्थ प्रयोजनों में है । यज्ञ का तात्पर्य सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में योगदान करना है । गायत्री जप की पूर्णता कृत्य द्वारा होती है । इसका तत्त्वज्ञान यह है कि पवित्र यज्ञीय जीवन जिया जाय, साथ ही सविता देवता को प्रसन्न करने वाली-उसकी प्रिय पत्नी दक्षिणा का भी सत्कार किया जाय । यहाँ दुष्प्रवृत्तियों के परित्याग और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन करने के निमित्त किए गये संकल्पों को ही भाव भरी दक्षिणा-देव दक्षिणा समझा जाना चाहिए ।
गायत्री उपासना में सफलता-असफलता मिलने की पृष्ठभूमि में शास्त्रोक्त क्रिया कृत्यों का जितना महत्त्व है उससे भी अधिक उस तत्त्वज्ञान का है जिसमें साधक को व्यक्तित्व परिष्कृत करने के लिए मन, बुद्धि और आहार को पवित्र बनाने तथा सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन में प्रबल प्रयत्न करने वाली बात भी सम्मिलित है ।
गायत्री उपासना की दिनचर्या, क्रम, पद्धति ऐसी होनी चाहिए जिसे ब्रह्मकर्म, तप, साधन कहा जा सके । कहा गया है कि
”इदं ब्रह्म ह श्रियं प्रतिष्ठाम् अयवनम् ऐक्षत”
अर्थात् ब्रह्मा ने गायत्री में शोभा, सम्पदा और कीर्ति के सभी तत्त्व भर दिये । किन्तु साथ ही यह भी प्रावधान रखा कि ”सावित्र्या ब्राह्मणं सृष्ट्वा तत् सावित्री पर्यपधात्” अर्थात् उसन गायत्री को धारण कर सकने में समर्थ ब्राह्मण को सृजा और उसे सावित्री के साथ बाँध दिया । ब्राह्मण वंश से नहीं, ऐसे कर्म करने से बनता है, जिनमें सत्य और तप का व्रत जुड़ा हुआ है । गोपथ की इसी कण्डिका में इस तथ्य को प्रकट करते हुए कहा गया है-
”कर्मणा तपः, तपसः सत्यम्-सत्येन ब्रह्म ब्रह्मणा ब्रह्मणाम्-ब्रह्मणेन व्रतम् समदधात ”
अर्थात् सत्कर्मों को तप कहते हैं-तप से सत्य की प्राप्ति होती है, सत्य ही ब्रह्म है-ब्रह्म को धारण करने वाला ब्राह्मण- ब्राह्मण वह जो आदर्शपालन का व्रत धारण करे- ऐसे ही व्रतधारी ब्राह्मण को गायत्री की प्राप्ति होती है ।
शालीनता एवं तपश्चर्या की बात पढ़ते, सुनते यो सोचते रहने से काम नहीं चलता । सदाचरण को व्रत रूप में जीवन-क्रम में अविच्छिन्न रूप से समाविष्ट रखा जाना चाहिए । इस परिपालन के आधार पर ही ब्रह्मतेज प्रखर होता है और गायत्री तत्त्व की उपलब्धि में कृत-कृत्य होने का अवसर मिलता है । मौदगल्य कहते हैं -”व्रतेन वै ब्राह्मणः संशितः भवति-अशून्य भवति-अविच्छिन्नःअस्य तन्तु-अविच्छिन्नं जीवनं भवति” अर्थात् व्रत से ब्राह्मणत्व मिलता है- जो ब्राह्मण है वही मनीषी है-ऐसा व्यक्ति समृद्ध और समर्थ रहता है- उसकी परम्परा छिन्न नहीं होती और मरण सहज पड़ता है ।
गायत्री का तत्त्वज्ञान और उसके अनुग्रह का रहस्य बताते हुए महर्षि मौदगल्य ने विस्तारपूर्वक यही समझाया है कि चिन्तन और चरित्र की दृष्टि से संयम और परमार्थ की दृष्टि से व्यक्तित्व को पवित्र बनाने वाले ब्रह्मपरायण व्यक्ति ही गायत्री के तत्त्ववेत्ता हैं और उन्हीं को वे सब लाभ मिलते हैं जिनका वर्णन गायत्री की महिमा एंव फलश्रुति का वर्ण करते हुए स्थान-स्थान पर प्रतिपादित किया गया है । इस रहस्य के ज्ञाता की ओर संकेत करते हुए गोपथ ब्राह्मण का ऋषि कहता है ।
”यएवं वेद यः च एवं विद्वान एवं एतम् व्याचष्टे”-
जो इस पवित्र जीवन समेत की गई सावित्री का आश्रय लेता है, वही ज्ञानी है-वही मनीषी है, उसी को पूर्णता प्राप्त होता है ।
मानवी सत्ता से लेकर विस्तृत ब्रह्माण्ड में समान रूप से व्याप्त त्रिपदा गायत्री को भुवनेश्वरी रूप सर्वविदित है । गायत्री बीज ‘ॐकार’ है । उसकी सत्ता तीनों लोक (भूर्भुवःस्वः) लोकों में संव्याप्त है । साधक के लिए उसे .4 अक्षर सिद्धियों एवं उपलब्धियों से भरे-पूरे हैं । इन अक्षरों में सन्निहित प्रेरणाओं को अपनाने वाले साधक निश्चित रूप से आप्तकाम बनते हैं और उस तरह खिन्न उद्विग्न नहीं रहते जिस तरह के लिप्सा-लालसाओं की अनुपयुक्त कामनाओं की आग में जलते-भुनते हुए शोक-संताप सहते हैं । इस तथ्य को ”रुद्रयामल” में इस प्रकार प्रकट किया गया है-
गायत्री त्रिपदा देवी त्र्यक्षरी भुवनेश्वरी ।
चतुर्विंशाक्षरा विद्या सा चैवाभीष्ट देवता॥ -रुद्रयामल
”तीन पद वाली तथा तीन अक्षर (भूर्भुवःस्वः) युक्त समस्त भुवनों की अधिष्ठात्री .4 अक्षर वाली पराविद्या रूप गायत्री देवी-सबको इच्छित फल देने वाली है ।”
स्पष्ट है कि गायत्री के तत्वज्ञान को हृदयंगम करके उसके अनुसार पद्धति अपनाने वाले साधकों के लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है ।
(गायत्री महाविद्या का तत्वदर्शन पृ….7 )
* गायत्री के चौबीस अक्षरों से संबंधित कलाएँ एवं मातृकाएँ इस प्रकार हैं-
(१) तापिनी
(२) सफला
(३) विश्वा
(४) तुष्टा
(५) वरदा
(६) रेवती
(७) सूक्ष्मा
(८) ज्ञाना
(९) भर्गा
(१०) गोमती
(११) दर्विका
(१२) थरा
(१३) सिंहिका
(१४) ध्येया
(१५) मर्यादा
(१६) स्फुरा
(१७) बुद्धि
(१८) योगमाया
(१९) योगात्तरा
(२०) धरित्री
(२१) प्रभवा
(२२) कुला
(२३) दृष्या
(२४) ब्राह्मी ।
*
* गायत्री की २४ मातृकाएँ
(१) चन्द्रकेश्वरी
(२) अजतवला
(३) दुरितारि
(४) कालिका
(५) महाकाली
(६) श्यामा
(७) शान्ता
(८) ज्वाला
(९) तारिका
(१०) अशोका
(११) श्रीवत्सा
(१२) चण्डी
(१३) विजया
(१४) अंकुशा
(१५) पन्नगा
(१६) विर्वाक्षी
(१७) वेला
(१८) धारिणी
(१९) प्रिया
(२०) नरदत्ता
(२१) गन्धारी
(२२) अम्बिका
(२३) पद्मावती
(२४) सिद्धायिका ।
सामान्य दृष्टि से कलाएँ और मातृकाएँ अलग-अलग प्रतीत होती हैं, किन्तु तात्विक दृष्टि से देखने पर उन दोनों का अन्तर समाप्त हो जाता है । उन्हें श्रेष्ठता की सार्मथ्य कह सकते हैं और उनके नामों के अनुरूप उनके द्वारा उत्पन्न होने वाले सत्परिणामों का अनुमान लगा सकते हैं ।
गायत्री के २४ अक्षर २४ दिव्य प्रकाश स्तम्भ
गोपथ ब्राह्मण में गायत्री के २४ अक्षरों को २४ स्तम्भों का दिव्य तेज बताया गया है । समुद्र में जहाजों का मार्गदर्शन करने के लिए जहाँ-तहाँ प्रकाश स्तम्भ खड़े रहते हैं । उनमें जलने वाले प्रकाश को देखकर नाविक अपने जलपोत को सही रास्ते से ले जाते हैं और वे चट्टानों से टकराने एवं कीचड़ आदि में धँसने से बच जाते हैं । इसी प्रकार गायत्री के २४ अक्षर २४ प्रकाश स्तम्भ बनकर प्रजा की जीवन नौका को प्रगति एवं समृद्धि के मार्ग पर ठीक तरह चलते रहने की प्रेरणा करते हैं । आपत्तियों से बचाते हैं और अनिश्चितता को दूर करते हैं ।
गोपथ के अनुसार गायत्री चारों वेदों की प्राण, सार, रहस्य एवं तन है । साम संगीत का यह रथन्तर आत्मा के उल्लास को उद्देलित करता है । जो इस तेज को अपने में धारण करता है, उसकी वंश परम्परा तेजस्वी बनती चली जाती है । उसकी पारिवारिक संतति और अनुयायियों की शृंखला में एक से एक बढ़कर तेजस्वी, प्रतिभाशाली उत्पन्न होते चले जाते हैं । श्रुति कहती है-
तेजो वै गायत्री छन्दसां रथन्तरमं साम्नाम् तेजश्चतुर्विशस्ते माना तेज एवं तत्सम्यक् दधाति पुत्रस्थ पुत्रस्तेजस्वी भवति॥ -गोपथ
अर्थात्-गायत्री सब वेदों का तेज है । सामवेद का यह रथन्तर छन्द ही २४ स्तम्भों का यह दिव्य तेज है । इस तेज को धारण करने वाले की वंश परम्परा तेजस्वी होती है ।
* गायत्री के २४ प्रत्यक्ष देवता
गायत्री मंत्र के २४ अक्षरों को २४ देवताओं का शक्ति – बीज मंत्र माना गया है । प्रत्येक अक्षर का एक देवता है । प्रकारान्तर से इस महामंत्र को २४ देवताओं का एवं संघ, समुच्चय या संयुक्त परिवार कह सकते हैं । इस परिवार के सदस्यों की गणना के विषय में शास्र बतलाते हैं-
गायत्री मंत्र का एक-एक अक्षर एक-एक देवता का प्रतिनिधित्व करता है । इन २४ अक्षरों की शब्द शृंखला में बँधे हुए २४ देवता माने गये हैं-
गायत्र्या वर्णमेककं साक्षात देवरूपकम् ।
तस्मात् उच्चारण तस्य त्राणयेव भविष्यति॥ -गायत्री संहिता
अर्थात्-गायत्री का एक-एक अक्षर साक्षात् देव स्वरूप है । इसलिए उसकी आराधना से उपासक का कल्याण ही होता है ।
दैवतानि शृणु प्राज्ञ तेषामेवानुपूर्वशः ।
आग्नेयं प्रथम प्रोक्तं प्राजापत्यं द्वितीयकम्॥
तृतीय च तथा सोम्यमीशानं च चतुर्थकम् ।
सावित्रं पञ्चमं प्रोक्तं षष्टमादित्यदैवतम्॥
वार्हस्पत्यं सप्तमं तु मैवावरुणमष्टमम् ।
नवम भगदैवत्यं दशमं चार्यमैश्वरम्॥
गणेशमेकादशकं त्वाष्ट्रं द्वादशकं स्मृतम् ।
पौष्णं त्रयोदशं प्रोक्तमैद्राग्नं च चतुर्दशम्॥
वायव्यं पंचदशकं वामदेव्यं च षोडशम् ।
मैत्रावरुण दैवत्यं प्रोक्तं सप्तदशाक्षरम्॥
अष्ठादशं वैश्वदेवमनविंशंतुमातृकम् ।
वैष्णवं विंशतितमं वसुदैवतमीरितम्॥
एकविंशतिसंख्याकं द्वाविंशं रुद्रदैवतम् ।
त्रयोविशं च कौवेरेगाश्विने तत्वसंख्यकम्॥
चतुर्विंशतिवर्णानां देवतानां च संग्रहः । -गायत्री तंत्र प्रथम पटल ।
अर्थात्-हे प्राज्ञ! अब गायत्री के २४ अक्षरों में विद्यमान २४ देवताओं के नाम सुनों-
(१) अग्नि
(२) प्रजापति
(३) चन्द्रमा
(४) ईशान
(५) सविता
(६) आदित्य
(७) बृहस्पति
(८) मित्रावरुण
(९) भग
(१०) अर्यमा
(११) गणेश
(१२) त्वष्टा
(१३) पूषा
(१४) इन्द्राग्नि
(१५) वायु
(१६) वामदेव
(१७) मैत्रावरूण
(१८) विश्वेदेवा
(१९) मातृक
(२०) विष्णु
(२१) वसुगण
(२२) रूद्रगण
(२३) कुबेर
(२४) अश्विनीकुमार ।
गायत्री ब्रह्मकल्प में देवताओं के नामों का उल्लेख इस तरह से किया गया है-
१-अग्नि,२-वायु, ३-सूर्य, ४-कुबेर, ५-यम, ६-वरुण, ७-बृहस्पति, ८-पर्जन्य, ९-इन्द्र, १०-गन्धर्व, ११-प्रोष्ठ, १२-मित्रावरूण, १३-त्वष्टा, १४-वासव, १५-मरूत, १६-सोम, १७-अंगिरा, १८-विश्वेदेवा, १९-अश्विनीकुमार, २०-पूषा, २१-रूद्र, २२-विद्युत, २३-ब्रह्म, २४-अदिति ।
* गायत्री की २४ मस्तिष्कीय शक्ति
गायत्री मंत्र के .4 अक्षरों को .4 देवताओं का शक्ति बीज मंत्र माना गया है । प्रत्येक अक्षर का एक देवता है । प्रकारान्तर से इस महामंत्र को .4 देवताओं का एंव संघ-समुच्चय या संयुक्त परिवार कह सकते हैं । इस परिवार के सदस्यों की गणना के विषय में शास्त्र बतलाते हैं-
गायत्री मंत्र का एक-एक अक्षर एक-एक देवता का प्रतिनिधित्व करता है । इन .4 अक्षरों की शब्द-शृंखला में बँधे हुए .4 देवता माने गये हैं-
गायत्र्या वर्ण मेककं साक्षात् देवरूपकम् ।
तस्मात् उच्चारण तस्य त्राणयेव भविष्याति॥ -गायत्री संहिता
अर्थात् गायत्री का एक-एक अक्षर साक्षात् देव स्वरूप है । इसलिए उसकी आराधना से उपासक का कल्याण ही होता है ।
देवतानि शृणु प्राज्ञ तेषामेवानुपूर्वशः ।
आग्नेयं प्रथमं प्रोक्तं प्राजापत्यं द्वितीयकम्॥
तृतीयं च तथा सौम्यमीशानं च चतुर्थकम् ।
सावित्रं पञ्चमं प्रोक्तं षष्टमादित्यदैवतम्॥
बार्हस्पत्यं सप्तमं तु मैत्रावरुणमष्टमम् ।
नवमं भगदवत्यं दशमं चौर्यमैश्वरम्॥
गणेशमेकादशकं त्वाष्ट द्वादशकं स्मृतम् ।
पौष्णं त्रयोदशं प्रौक्तमैद्राग्नं च चतुर्दशम्॥
वायव्यं पंचदशकं वामदैब्धं च षोडशम् ।
मैत्रावरुणा दैवत्यं प्रोक्तं सप्तशाक्षरम्॥
अष्ठादशं वैश्वदेवमुनविंशतिमातृकम् ।
वैष्णवं विशतितमं वसुदैवतमीरितम्॥
एकविंश्तसंख्याकं द्वाविंशं रुद्रदैवतम् ।
त्रयोविशं च कौबेरेमाश्विनं तत्वसंख्यकम्॥
चतुर्विंशतिवर्णानां दैवतानां च संग्रहः॥ -गायत्री तंत्र प्रथम पटल
हे प्राज्ञ! अब गायत्री के .4 अक्षरों में विद्यमान .4 देवताओं के नाम सुनो-(.)अग्नि, (.)प्रजापति, (.)चन्द्रमा, (4)ईशान, (5)सावित्री (6)आदित्य, (7) बृहस्पति, (8) मित्रावरुण, (9) भाग (.() ईश्वर, (..) गणेश, (..)त्वष्टा, (..) पूषा, (.4) इन्द्राग्नि, (.5) वायु, (.6) वामदेव (.7)मैत्रावरुण (.8) वैश्वदेव (.9)मातृक (.() विष्णु (..) वसुगण (..) रुद्रगण (..) कुबेर (.4) अश्विनीकुमार ।
छन्द शास्त्र की दृष्टि से चौबीस अक्षरों के तीन विराम वाले पद्य को ‘गायत्री’ कहते हैं । मन्त्रार्थ की दृष्टि से उसमें सविता तत्व का ध्यान और प्रज्ञा प्रेरणा का विधान सन्निहित है । साधना-विज्ञान की दृष्टि से गायत्री मंत्र का हर अक्षर बीज मंत्र है । उन सभी का स्वतंत्र अस्तित्व है । उस अस्तित्व के गर्भ में एक विशिष्ट शक्ति-प्रवाह समाया हुआ है ।
गुलदस्ते में कई प्रकार के फूल होते हैं । उनके गुण, रूप, गन्ध आदि में भिन्नता होती है । उन सबको एक सूत्र में बाँधकर, एक पात्र में सजाकर रख दिया जाता है तो उसका समन्वित अस्तित्व एक विशिष्ट शोभा-सौन्दर्य का प्रतीक बन जाता है । गायत्री मंत्र को एक ऐसा ही गुलदस्ता कहा जा सकता है, जिसमें .4 अक्षरों के अलग-अलग सामर्थ्य से भरे-पूरे प्रवाहों का समन्वय है ।
औषधियों में कई प्रकार के रासायनिक पदार्थ मिले होते हैं । उनके पृथक-पृथक गुण हैं, पर उनका समन्वय एक विशिष्ट गुण युक्त बन जाता है ।