वास्तु शास्त्र का वैज्ञानिक और आध्यात्मिक आधार है। जिस प्रकार हमारा शरीर पंचमहाभूतों से मिल कर बना है उसी प्रकार किसी भी भवन के निर्माण में पंच महाभूतों का पर्याप्त ध्यान रखा जाए तो भवन में रहने वाले सुख से रहेंगे। वास्तु शास्त्र जीवन के संतुलन का प्रतिपादन करता है वास्तु पृथ्वी, जल, वायु, आकाश और अग्नि इन पांच तत्वों से बना है जीवधारियों को निम्नलिखित बातें सर्वाधिक प्रभावित करती हैं। जिसकी तालिका इस प्रकार है। इन पांच तत्वों का समान मिश्रण है। इनके सही मिश्रण से मनुष्य को धर्म और एश्वर्य की प्राप्ति होती है। आधुनिक विज्ञान का आधार वैदिक ज्ञान भी है। जो संपूर्ण विश्व में व्याप्त है। वास्तु का मूलभूत सिद्धांत है- प्रकृति के स्थूल और सूक्ष्म प्रभावों को मानव मात्र के अनुरूप प्रयोग में लाना। कोई भी निर्माण प्रक्रिया इस प्रकार हो कि वहां रहने वाले व्यक्तियों की दैविक, भौतिक, अध्यात्मिक उन्नति में सहायक हो जो भी निर्माण कार्य हो इन पांच तत्वों के अनुकूल हो जिससे मानव की विचार शक्ति, कार्य शक्ति सहज ही संतुलित रूप से कार्य करंे अन्यथा इन शक्तियों के असंतुलन होने से मनुष्य के प्रत्येक क्षेत्र में विषमताएं उत्पन्न हो जायेंगी। क्योंकि हमारा शरीर परमात्मा कृत वास्तु है। वास्तु शास्त्र के संपूर्ण ज्ञान से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति होती है। इन चारों की प्राप्ति हेतु शरीर का स्वस्थ होना, मन का स्थिर होना एवं बुद्धि का निर्मल होना जरूरी है। ऐसा तभी संभव है जबकि मानव जहां वास करता है प्राकृतिक ऊर्जाओं को ध्यान में रखते हुए निर्मित किये कार्य हो समस्त प्राणी प्रकृति में ऋतियों के परिवर्तन एवं पर्यावरण संतुलन के बनने बिगड़ने से प्रभावित होते हैं। यह सत्य है कि प्रत्येक प्राणी अपनी सुरक्षा हेतु एक आश्रय का निर्माण करता है ||
वैदिक काल में भवन विन्यास (निर्माण) के मुख्यतः तीन अंग माने गए हैं, यथा मुख्य द्वार, अतिथि गृह एवं शयनकक्ष। भवन की मुख्य पहचान घर के ‘मुख्य द्वार’ से होती है, जिसमें भवन की गैलरी (पौरी), आंगन आदि भी सम्मिलित होते हैं। भवन का दूसरा व महत्वपूर्ण अंग है, ‘‘अतिथि गृह’ अर्थात् बैठक, जहां आगन्तुकों को बिठाया तथा स्वागत किया जाता है। भवन का तीसरा अति महत्वपूर्ण अंग है ‘अंतःपुर; अर्थात् ‘शयन कक्ष’, जो परिवार के सदस्यों, विशेषकर स्त्रियों के लिये विशेष भाग होता है। घर या भवन के दूसरे भाग के दाहिने पाश्र्व में ‘पाकशाला’ अर्थात् ‘रसोईघर’ के निर्माण की व्यवस्था करनी चाहिए। इसके उत्तर की ओर पवित्र स्थान अर्थात् देवगृह या पूजा-पाठ का कक्ष होता है। वैदिक कालीन भवन निर्माण में अत्यधिक सुगमता और सादगी होती थी। भारतीय वाङ्मय के अनुसार विश्वकर्मा को ही वास्तुशास्त्र का आचार्य माना जाता है। दक्षिण भारतीय भाषाओं में ‘समरांगण सूत्रधार’ नामक एक ग्रंथ है, जो विश्वकर्मा के कर्मठ ‘वास्तुविद्’ होने का प्रमाण देता है। वैदिक युग में ही ‘सिंहल द्वीप’ में यक्षाधिपति कुबेर (रावण का भाई) द्वारा बसाई गई स्वर्णनगरी ‘लंका’ थी जिस पर बाद में ‘रावण’ का अधिकार हो गया। सिंहल द्वीप की स्वर्णनगरी में जिस वास्तु कला का प्रदर्शन हुआ था, वह भारतीय उपमहाद्वीप का एक जीवन्त उदाहरण है। यद्यपि आज उस स्वर्णमयी लंका के अवशेष भी नहीं, लेकिन दक्षिण भारत के मंदिर और देवालय आदि सब वैदिक कालीन अनुकृतियां हैं। देवशिल्पी विश्वकर्मा ने अनेक देवपुर बनाए थे, जिनमें श्रीकृष्ण की द्वारिका का निर्माण एक जीवन्त उदाहरण है। द्वारिका गुजरात के समुद्र-तट से लगी हुई एक वैदिक कालीन स्वर्ण-नगरी थी। देवशिल्पी विश्वकर्मा ने ही वास्तुशास्त्र के सिद्धांतों की रचना की थी। उन्होंने ही इस बात का उल्लेख किया था कि ‘वास्तु शास्त्री’ को ज्ञानी व विद्वान होना चाहिए।|
वास्तु विद्या के सुप्रतिष्ठित ग्रंथ मानासार के अनुसार धरा हम्र्य, भवन यान तथा पर्यंक इन चारों का ही बोध वास्तु षब्द से होता है। ‘मयमत’ के अनुसार वास्तु षब्द का अभिप्राय भूमि प्रासाद, यान एवं षयन से है। हम्र्य षब्द भी अति व्यापक अर्थयुक्त है। डाॅ. आचार्य के वास्तु विष्वकोश में कहा गया है कि हम्र्य में प्रासाद, मण्डप, सभा, षाला, प्रपा तथा रंग सभी सम्मिलित हैं। उनके षब्दों में वास्तु कला में सभी प्रकार के भवनों -धार्मिक, आवास योग्य, सेना योग्य तथा उनके उपभवन एवं उपांगों, प्रत्यंगों आदि का प्रथम स्थान है। पुरनिवेष, उद्यान रचना, पण्य(व्यापारिक )स्थानों, पोत स्थानों आदि का निर्माण, मार्ग योजना, सेतु विधान, गोपुर विधान, द्वार निवेष, तोरण विनिवेष, परिखा खनन, वप्रनिर्माण, प्रकार विधान, बल भ्रमयोजना, भित्ति रचना, सोपान निर्माण भी वास्तु षास्त्र का प्रधान अंग है। वास्तु कला में भवन, फर्नीचर, भूषण रचना एवं वस्त्र रचना भी सम्मिलित है। मूर्ति निर्माण कला वास्तु कला की सहयोगी कला है। वास्तु कला, भवन निर्माण, अथवा पुर निवेष क्रे प्रारम्भिक कृत्य जैसे कि भूमि चयन, भू परीक्षा, षंकु स्थापन, दिक्साम्मुख्य एवं आयादि निर्णय भी वास्तु षास्त्र के अंग हैं। वास्तु षब्द का अन्तर्निहित अर्थ है योजना। यही इसका मर्म है। किसी भी रचना, सृष्टि अथवा निर्माण के पूर्व योजना का होना आवष्यक है। समरांगण सूत्रधार अध्याय . ष्लोक 4 में कहा गया है कि जगत की सृष्टि के पूर्व ब्रह्मा ने वास्तु की सृष्टि की। वास्तु षास्त्र का प्रधान विषय भवन कला, यन्त्र कला, काष्ठ कला, भूषण कला, आसन, सिंहासन आदि का विधान तथा मूर्तिकला- चित्रकला है।
भारतीय वास्तुविद्या के मूल में भी वेद ही है। वेदों के साथ वास्तुविद्या का दो प्रकार का संबंध है। एके तो अथर्ववेद का उपवेद स्थापत्यवेद वास्तुविद्या का मूल है और दूसरा छः वेदांगों में से कल्प और ज्योतिष वेदांग से भी वास्तुविद्या का संबंध है। ज्योतिष वेदांग के संहिता स्कंध के अंतर्गत वास्तुविद्या का विचार किया जाता है। भारतीय वास्तुशास्त्र का संबंध भवननिर्माण कला से है। इसका मुख्य उद्देश्य मनुष्य के लिए ऐसे भवन का निर्माण करना है जिसमें मनुष्य आध्यात्मिक और भौतिक उन्नति करता हुआ सुख, शांति और समृद्धि को प्राप्त करे। अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वास्तुशास्त्र के आचार्यों ने भवन निर्माण के विभिन्न सिद्धांतों का उपदेश किया है उन्हीं सिद्धांतों में से एक है – शल्यशोधन सिद्धांत। शल्यशोधन सिद्धांत भूमि के शल्यदोष के निवारण की एक विधि है। भूमि की गुणवत्ता उसमें दोषों की न्यूनता होने पर बढ़ती है और भूमि के दोषों में से एक दोष शल्यदोष भी है। शल्य से युक्त भूमि पर भवन निर्माण सदैव अशुभ परिणामों को प्रदान करता है। अतः भवन निर्माण से पूर्व शल्यशोधन विधि का प्रयोग अवश्य करना चाहिए। शल्यशोधन के विषय में वास्तुशास्त्रीय ग्रंथों में ‘शल्योद्धार’ के नाम से एक विधि का वर्णन किया गया है जिसके अनुसार शल्यशोध्न कर शल्यरहित भवन का निर्माण किया जा सकता है। शल्य शब्द का अर्थ गौ, घोड़ा, कुत्ता या किसी भी जीवन की अस्थि से है। इस अस्थि के भवन की भूमि में रहने पर उस भूमि को शल्ययुक्त माना जाता है। भस्म, वस्त्र, खप्पर, जली हुई लकड़ी, कोयला आदि को भी शल्य की श्रेणी में ही परिगणित किया जाता है।
वास्तुशास्त्र जीवन के संतुलन का प्रतिपादन करता है। यह संतुलन बिगड़ते ही मानव एकाकी और समग्र रूप से कई प्रकार की कठिनाइयों और समस्याओं का शिकार हो जाता है। वास्तुशास्त्र के अनुसार पंचमहाभूतों- पृथ्वी ,जल , वायु , अग्नि और आकाश के विधिवत उपयोग से बने आवास में पंचतत्व से निर्मित प्राणी की क्षमताओं को विकसित करने की शक्ति स्वत: स्फूर्त हो जाती है।
हमारे ग्रंथों के अनुसार—-
“शास्तेन सर्वस्य लोकस्य परमं सुखम्
चतुवर्ग फलाप्राप्ति सलोकश्च भवेध्युवम्
शिल्पशास्त्र परिज्ञान मृत्योअपि सुजेतांव्रजेत्
परमानन्द जनक देवानामिद मीरितम्
शिल्पं बिना नहि देवानामिद मीरितम्
शिल्पं बिना नहि जगतेषु लोकेषु विद्यते।
जगत् बिना न शिल्पा च वतंते वासवप्रभोः॥”
विश्व के प्रथम विद्वान वास्तुविद् विश्वकर्मा के अनुसार शास्त्र सम्मत निर्मित भवन विश्व को सम्पूर्ण सुख, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कराता है। वास्तु शिल्पशास्त्र का ज्ञान मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कराकर लोक में परमानन्द उत्पन्न करता है, अतः वास्तु शिल्प ज्ञान के बिना निवास करने का संसार में कोई महत्व नहीं है। जगत और वास्तु शिल्पज्ञान परस्पर पर्याय हैं।
स्थापत्य वेद प्राकृतिक विधानों के अनरूप देश, नगर एवं गृह नियोजन की अति प्राचीन एवं सर्वोच्च प्रणाली है, जो व्यक्तिगत जीवन को समष्टि के साथ जोड़ती है, पृथ्वी पर आदर्श जीवन का निर्माण करती है, जहां प्रत्येक व्यक्ति अनुभव करे कि ‘मैं स्वर्ग में रह रहा हूं।’ स्थापत्य वेद वह ज्ञान है जो प्रत्येक वस्तु को अत्यन्त सुव्यवस्थित तरीके से स्थापित करता है ताकि प्रत्येक वस्तु अन्य वस्तु द्वारा पोषित हो । स्थापत्य वेद प्रकृति के सर्वाधिक मूलभूत नियमों का लाभ उठाता है जो पूर्ण स्वास्थ्य, प्रसन्नता, एवं समृद्धि के प्रदायक हैं। यह प्राकृतिक विधानों के अनुरूप घरों एवं कार्यालयों के अभिकल्पन के लिए उचित गणितीय फार्मूला, समीकरणों एवं समानुपातों का उपयोग करता है। स्थापत्य वेद एक मात्रा विज्ञान है जिसके पास स्थल चयन, उचित दिशा, विन्यास, स्थापन एवं कमरों का उनके प्रयोजन के अनुसार नियोजन का सटीक ज्ञान एवं दीर्घकालीन परीक्षित सिद्धांत है ।
वास्तु एक प्राचीन विज्ञान है। हमारे ऋषि मनीषियों ने हमारे आसपास की सृष्टि में व्याप्त अनिष्ट शक्तियों से हमारी रक्षा के उद्देश्य से इस विज्ञान का विकास किया। वास्तु का उद्भव स्थापत्य वेद से हुआ है, जो अथर्ववेद का अंग है। इस सृष्टि के साथ-साथ मानव शरीर भी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से बना है और वास्तु शास्त्र के अनुसार यही तत्व जीवन तथा जगत को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक हैं। भवन निर्माण में भूखंड और उसके आसपास के स्थानों का महत्व बहुत अहम होता है।
हमारे प्राचीन साहित्य में वास्तु का अथाह महासागर विद्यमान है। आवश्यकता है केवल खोजी दृष्टि रखने वाले सजग गोताखोर की जो उस विशाल सागर में अवगाहन कर सत्य के माणिक मोती निकाल सके और उस अमृत प्रसाद को समान रूप से जन सामान्य में वितरित कर सुख और समृध्दि का अप्रतिम भण्डार भेंट कर सकें, तभी वास्तुशास्त्र की सही उपयोगिता होगी।
मानव सभ्यता के विकास एवं विज्ञान की उन्नति के साथ भवन निर्माण कला में अनेकानेक परिवर्तन होते गये। जनसंख्या में द्रूतगति से होती वृध्दि और भूखण्डों की सीमित संख्या जनसामान्य की अशिक्षा और वास्तुग्रंथों के संस्कृत में लिखे होने एवं मुद्रण प्रणाली के विकसित न होने के कारण इस शास्त्र की उत्तरोत्तर अवहेलना होगी गयी। विदेशी शासकों के बार-बार हुए आक्रमणों एवं अंग्रेजों के भारत में आगमन के पश्चात् पाश्चात्य सभ्यता के अंधानुकरण में हम अपने समृध्द ज्ञान के भंडार पर पूर्णरूप से अविश्वास कर इसे कपोल कल्पित, भ्रामक एवं अंधविश्वास समझने लगे।
भौतिकतावाद के इस युग में जहां शारीरिक सुख बढ़े हैं, वहीं लोगों का जीवन तनावग्रस्त भी हुआ है। इस तनाव के वैसे तो कई कारण होते हैं, परंतु वास्तु सिद्धांतों के प्रतिकूल बना भवन भी इसका एक प्रमुख कारण होता है। पुराने समय में सभी घर लगभग आयताकार होते थे। घरों में आम तौर पर बोरिंग, पानी की भूमिगत टंकी, सेप्टिक टैंक इत्यादि नहीं होते थे। जमीन समतल हुआ करती थी। यही कारण था कि तब लोगों का जीवन इस तरह तनावग्रस्त नहीं हुआ करता था।
वास्तु का प्रभाव चिरस्थायी है, क्योंकि पृथ्वी का यह झुकाव शाश्वत है, ब्रह्माण्ड में ग्रहों आदि की चुम्बकीय शक्तियों के आधारभूत सिध्दांत पर यह निर्भर है और सारे विश्व में व्याप्त है इसलिए वास्तुशास्त्र के नियम भी शाश्वत है, सिध्दांत आधारित, विश्वव्यापी एवं सर्वग्राहा हैं। किसी भी विज्ञान के लिए अनिवार्य सभी गुण तर्क संगतता, साध्यता, स्थायित्व, सिध्दांत परकता एवं लाभदायकता वास्तु के स्थायी गुण हैं। अतः वास्तु को हम बेहिचक वास्तु विज्ञान कह सकते हैं।
जैसे आरोग्यशास्त्र के नियमों का विधिवत् पालन करके मनुष्य सदैव स्वस्थ जीवन व्यतीत कर सकता है, उसी प्रकार वास्तुशास्त्र के सिध्दांतों के अनुसार भवन निर्माण करके प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन को सुखी बना सकता है। चिकित्साशास्त्र में जैसे डाक्टर असाध्य रोग पीड़ित रोगी को उचित औषधि में एवं आपरेशन द्वारा मरने से बचा लेता है उसी प्रकार रोग, तनाव और अशांति देने वाले पहले के बने मकानों को वास्तुशास्त्र के सिध्दांतों के अनुसार ठीक करवा लेने पर मनुष्य जीवन में पुनः आरोग्य, शांति और सम्पन्नता प्राप्त कर सकता है।
शास्त्रों में वास्तु का अर्थ है गृह निर्माण योग्य भूमि! अर्थात् जिस भूमि पर अधिक सुरक्षा व सुविधा प्राप्त हो सके, इस प्रकार के मकान को भवन व महल आदि जिसमें मनुष्य रहते हैं या काम करते हैं वास्तु कहते है।
इस ब्रह्मण्ड में सबसे शाक्तिशाली प्राकृति है क्योंकि यही सृष्टि का विकास करती है। यही ह्रास प्रलय, नाशा करती है। वास्तु शास्त्र इन्हीं प्राकृतिक शाक्तियों का अधिक प्रयोग कर अधिकतम सुरक्षा व सुविधा प्रदान करता है। ये प्राकृतिक शाक्तियां अनवरत चक्र से लगातार चलती रही है।
(.) गुरूत्व बल, (.) चुम्बकीय शाक्ति, (.) सौर ऊर्जा
पृथ्वी में दो प्रकार की प्रावृति शक्तियां हैं।
(.) गुरूत्व बल, (.) चुम्बकीय शक्ति
गुरूत्व :- गुरूत्व का अर्थ है पृथ्वी की वह आकर्षण शक्ति जिससे वह अपने ऊपर आकाश में स्थित वजनदार वस्तुओं को अपनी ओर खींच लेती है। उदाहरण के लिए थर्मोकोल व पत्थर का टुकडा। ऊपर से गिराने पर थर्मोकोल देरी से धरती पर आता है जबकि ठोस पत्थर जल्दी आकर्षित करती है। इसी आधार पर मकान के लिए ठोस भूमि प्रशांत मानी गई है।
चुम्बकीय शक्ति :- यह प्राकृति शक्ति भी निरन्तर पुरे ब्राह्मण्ड में संचालन करती है। सौर परिवार के अन्य ग्रहों के समान पृथ्वी अपनी कक्षा और अपने पर घुमने से अपनी चुम्बकीय शक्ति को अन्त विकसित करती है। हमारा पुरा ब्रह्मण्ड एक चुम्बकीय क्षेत्र है। इसके दो ध्रुव है। एक उत्तर, दूसरा दक्षिण ध्रुव। यह शक्ति उत्तरसे दक्षिण की ओर चलती है।
सौर ऊर्जा :- पृथ्वी को मिलने वाली ऊर्जा का मुख्य स्त्रोत सूर्य है। यह एक बडी ऊर्जा का केन्द्र है। सौर ऊर्जा पूर्व से पश्चिम कार्य करती है।
वैदिक वास्तु शास्त्र में मुख्य रूप से आठ दिशाओं , पंच तत्वो,के बारे मे वर्णन किया गया है,इन्ही का सन्तुलन करके हम अपने स्थान का पूर्ण सुख प्राप्त कर सकते है |
आठ दिशाएं निम्न है-
.. पूर्व (East)
.. पश्चिम(West)
.. उत्तर(North)
4. दक्षिण(South)
5. ईशान(North East)
6. अग्नि(South East)
7. वायव्य(North West)
8. नेत्रत्य(South West)
पंच तत्व निम्न है-
.. पृथ्वी
.. आकाश
.. वायु
4. जल
5. अग्नि
वास्तु ऐसा विषय है, जिस पर पुरातन काल से ही विचार और विश्वास किया जाता रहा है। सभ्यताओं के बसने-उजड़ने के साथ-साथ इस शास्त्र पर भी असर पड़ा, लेकिन इसका महत्व, इसकी प्रामाणिकता इसके अनुसार भवन निर्माण से होने वाले फायदों से सिद्घ होती है। हालांकि दो-तीन दशक पहले वास्तु की ओर लोगों का रुझान कम हो गया था, बावजूद इसके आज फिर से वास्तु के क्षेत्र में अवसरों की भरमार है। आजकल भवन केवल प्राकृतिक आपदाओं से बचने का साधन मात्र नहीं, बल्कि वे आनंद, शांति, सुख-सुविधाओं और शारीरिक तथा मानसिक कष्ट से मुक्ति का साधन भी माने जाते हैं। पर यह तभी संभव होता है, जब हमारा घर या व्यवसाय का स्थान प्रकृति के अनुकूल हो। भवन निर्माण की इस अनुकूलता के लिए ही हम वास्तुशास्त्र का प्रयोग करते हैं और इसके जानकारों को वास्तुशास्त्री कहते हैं।
इमारत, फार्म हाउस, मंदिर, मल्टीप्लेक्स मॉल, छोटा-बड़ा घर, भवन, दुकान कुछ भी हो, उसका वास्तु के अनुसार बना होना जरूरी है, क्योंकि आजकल सभी सुख-शांति और शारीरिक कष्टों से छुटकारा चाहते हैं। इस सबके लिए किस दिशा या कौन से कोण में क्या होना चाहिए, इस तरह के विचार की जरूरत पड़ती है और यह विचार ही वास्तु विचार कहलाता है। किसी भी भवन निर्माण में वास्तुशास्त्री की पहली भूमिका होती है।
एक सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में वास्तुशास्त्र का महत्व बढ़ रहा है, जिसकी बढ़ोतरी करीब .. प्रतिशत वार्षिक के करीब है। सर्वे के मुताबिक, करीब तीस प्रतिशत मकान और करीब .. प्रतिशत व्यावसायिक केंद्र वास्तु के आधार पर बने हुए हैं, जबकि एक प्रतिशत वे भवन हैं, जो फेंग्शुई के आधार पर बने हैं। अत: हम कह सकते हैं कि वास्तुशास्त्र का भविष्य काफी उज्जवल है।
वैदिक वास्तु को अनुभव करने से तात्पर्य वास्तुविद एवं भवन निर्माता की वैदिक चेतना को विकसित करना है एवं स्थापत्य वेद में निहित माप एवं फार्मूलों को उपयोग में लाना है, जो प्राकृतिक विधानों के अनुसार वास्तु के सिद्धांत एवं कार्यक्रम प्रदान करते हैं-जिनके अनुसरण में सृष्टि की अनंत संरचना निर्मित की गयी है ।
वैदिक वास्तु पूर्णता से उद्भूत होते हुए पूर्णता के सिद्धांत का अनुसरण करती है, जो स्थापत्य वेद की प्रक्रियाओं में उद्धृत है, जहां प्रथम चरण भूमि और भवन में ब्रह्मस्थान भूमि का भवन का केन्द्र बिन्दु को स्थापित करना है। भूमि अथवा भवन का केन्द्र बिन्दु-संपूर्णता, पूर्णता का स्थान होता है और इसी के संदर्भ में भवन की संरचना विस्तारित होती हैऋ संरचना के केन्द्र बिंदु से, पूर्णता की अभिव्यक्ति-पूर्णता विस्तारित होती है ।
यदि घरों, ग्रामों एवं नगरों का निर्माण वास्तु, स्थापत्य वेद की वैदिक प्रणाली पर आधारित नहीं है, तो वास्तु का गैर-पोषणकारी प्रभाव जीवन में कई अवांक्षित एवं नकारात्मक स्थितियों का कारण बनेगा। वैदिक वास्तु भवन निर्माण प्राकृतिक विधानों पर आधारित प्रणाली है जो सहजरूप से भवन एवं इसमें रहने वाले लोगों को सृष्टि के साथ सामन्जस्य स्थापित रखती है । स्थापत्य वेद का सिद्धांत किसी भवन, किसी ग्राम, किसी नगर, किसी देश को सृष्टि के साथ सामन्जस्य स्थापित करके रखना है अर्थात् प्रत्येक वस्तु का प्रत्येक अन्य वस्तु के साथ सामन्जस्यता को भी संधारित करना । जो भवन स्थापत्य वेद के अनुसार निर्मित होते हैं, वे प्रत्येक व्यक्ति के लिए अत्यन्त सुखकर, मनोबल ऊपर रखने वाले एवं विकासवान होते हैं क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति समष्टि का ही प्रतिरूप है। मानव शरीर की रचना व कार्य प्रणली समष्टि की रचना और कार्य प्रणाली का ही प्रतिरूप है क्योंकि दोनों ही प्रकृति के नियमों द्वारा ही निर्मित है-अणोरणियान एवं महतो-महीयान। सृष्टि के प्रत्येक कण की चेतना संपूर्ण ब्रह्माण्ड के ताल-मेल में है एवं इस प्रकार से सतत-विस्तारित सृष्टि की अनंत विविधता चेतना की एक एकीकृत संपूर्णता द्वारा धारित होती है ।
हमारे ऋषियों का सारगर्भित निष्कर्ष है, ‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे।’ जिन पंचमहाभूतों से पूर्ण ब्रह्मांड संरचित है उन्हीं तत्वों से हमारा शरीर निर्मित है और मनुष्य की पांचों इंद्रियां भी इन्हीं प्राकृतिक तत्वों से पूर्णतया प्रभावित हैं। आनंदमय, शांतिपूर्ण और स्वस्थ जीवन के लिए शारीरिक तत्वों का ब्रह्मांड और प्रकृति में व्याप्त पंचमहाभूतों से एक सामंजस्य स्थापित करना ही वास्तुशास्त्र की विशेषता है।
वास्तुशास्त्र जीवन के संतुलन का प्रतिपादन करता है। यह संतुलन बिगड़ते ही मानव एकाकी और समग्र रूप से कई प्रकार की कठिनाइयों और समस्याओं का शिकार हो जाता है। वास्तुशास्त्र के अनुसार पंचमहाभूतों- पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश के विधिवत उपयोग से बने आवास में पंचतत्व से निर्मित प्राणी की क्षमताओं को विकसित करने की शक्ति स्वत: स्फूर्त हो जाती है।
पृथ्वी मानवता और प्राणी मात्र का पृथ्वी तत्व (मिट्टी) से स्वाभाविक और भावनात्मक संबंध है। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है। इसमें गुरूत्वाकर्षण और चुम्बकीय शक्ति है। यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध है कि पृथ्वी एक विशालकाय चुम्बकीय पिण्ड है। एक चुम्बकीय पिण्ड होने के कारण पृथ्वी के दो ध्रुव उत्तर और दक्षिण ध्रुव हैं। पृथ्वी पर रहने वाले सभी प्राणी, सभी जड़ और चेतन वस्तुएं पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण से प्रभावित होते हैं। जिस प्रकार पृथ्वी अनेक तत्वों और अनेक प्रकार के खनिजों जैसे लोहा, तांबा, इत्यादि से भरपूर है उसी प्रकार हमारे शरीर में भी अन्य धातुओं के अलावा लौह धातु भी विद्यमान है। कहने का तात्पर्य है कि हमारा शरीर भी चुम्बकीय है और पृथ्वी की चुम्बकीय शक्ति से प्रभावित होता है। वास्तु के इसी सिद्धांत के कारण यह कहा जाता है कि दक्षिण की ओर सिर करके सोना चाहिए। इस प्रकार सोते समय हमारा शरीर ब्रह्मांड से अधिक से अधिक शक्ति को ग्रहण करता है और एक चुम्बकीय लय में सोने की स्थिति से मनुष्य अत्यंत शांतिप्रिय नींद को प्राप्त होता है और सुबह उठने पर तरोताजा महसूस करता है।
वास्तुशास्त्र में पृथ्वी (मिट्टी) का निरीक्षण, भूखण्ड का निरीक्षण, भूमि आकार, ढलान और आयाम आदि का ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक है। मात्र पृथ्वी तत्व ही एक ऐसा विशेष तत्व है, जो हमारी सभी इंद्रियों पर पूर्ण प्रभाव रखता है।
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विभिन्न अकारों के भूखंडों का महत्व:-
भवन का निर्माण वर्गाकार या आयताकार करना चाहिए। आयताकार भवनों के लिए यह आवश्यक है कि चौड़ाई और लंबाई का अनुपात वास्तु नियमों के अंतर्गत होना चाहिए।
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वर्गाकार- इस आका के भूखंड सर्वोत्तम होते हैं एवं इनमें रहने वाले लोगों को संपन्नता तथा प्रसन्नता प्राप्त होती है।
आयताकार- ऐसे भूखंडों में लोगों को स्वास्थ्य, धनलाभ तथा संपन्नता मिलती है।
त्रिकोणाकार- ये बिलकुल भी अच्छे नहीं होते, इस तरह के भूखंडों में निवास से मुकदमें जैसी कई समस्याएँ आ सकती हैं।
गोलाकार या वृृत्ताकार- ऐसे भूखंड निवास के लिए अच्छे नहीं होते, ये निरंतर नई समस्याओं के जन्मदाता होते हैं।
कोण विचार- पाँच कोण्, षट्कोण, अष्टकोण, बहुभुजाओं या अन्य आकार वाले भूखंड कतई अच्छे नहीं होते। ऐसे भूखंड जीवन में मानसिक उद्वेग और विभिन्न क्षेत्रों में अस्थिरता लाते हैं।
भूमि स्तर (Level) या ढाल का प्रभाव:-
पूर्व, उत्तईशार और न दिशा में नीची भूमि सब मनुष्यों के लिए अत्यंत वृृद्धि कारक है। अन्य दिशाओं में नीची भूमि सबके लिए हानिकारक होती है।
ऊँँची भूमि के लिए:-
पूर्व में पुत्र और धन का नाश होता है।
आग्नेय में धन देने वाली होती है।
दक्षिण में सब कामनाओं को पूर्ण करने वाली तथा निरोग करने वाली है।
नैऋत्य में धनदायक है।
पश्चिम में पुत्रप्रद तथा धन-धान्य की वृद्धि करने वाली है।
वायव्य में धनदायक है।
उत्तर में पुत्र और धन का नाश करने वाली है।
ईशान में महाक्लेश कारक है।
नीची भूमि के लिए:-
पूर्व में पुत्र दायक तथा धन की वृृद्धि करने वाली है।
आग्नेय में धन का नाश करने वाली, मृत्यु तथा शोक देने वाली और अग्निभय करने वाली है।
दक्षिण में मृृृत्युदायक, रोगदायक, पुत्र- पौत्रविनाशक, क्षयकारक और अनेक दोष करने वाली है।
नैऋत्य में धन की हानि करने वाली, महान भयदायक, रोगदायक और चोरभय करने वाली है।
पश्चिम में धननाशक, धान्यनाशक, कीर्तिनाशक, शोकदायक, पुत्रक्षयकारक तथा कलहकारक है।
वायव्य में परदेश वास क अराने वाली, उद्वेगकारक, मृत्युकारक, कलहकारक, रोगदायक तथा धान्य नाश्क है।
उत्तर में धन- धान्यप्रद और वंशवृद्धि करने वाली अर्थात पुत्रदायक है।
ईशान में विद्या देने वाली, धनदायक, रत्नसंचय करने वाली और सुखदायक है।
मध्य में नीची भूमि रोगप्रद, तथा सर्वनाश करने वाली है।
द्विदिशा भूमि के लिए:-
पूर्व व अग्नेय के मध्य ऊँँची और पश्चिम व वायव्य के मध्य नीची भूमि पितामह वास्तु कहलाती है। यह सुख देने वाली है।
दक्षिण व अग्नेय के मध्य ऊँँची और उत्तर व वायव्य के मध्य नीची भूमि सुपथ वास्तु कहलाती है। यह सब कार्यों में शुभ है।
पूर्व व ईशान में नीची और पश्चिम व नैऋत्य में ऊँची भूमि पुण्यक वास्तु कह लाती है। यह शुभ है।
पूर्व व आग्नेय के मध्य नीची और वायव्य व पश्चिम के मध्य ऊँँची भूमि अपथ वास्तु कहलाती है। यह बैर तथा कलह कराने वाली है।
दक्षिण व आग्नेय के मध्य नीची और उत्तर व वायव्य के मध्य ऊँची भूमि रोगकर वास्तु कहलाती है। यह रोग पैदा करने वाली है।
पूर्व व ईशान के मध्य ऊँची और पश्चिम व नैऋत्य के मध्य नीची भूमि श्मशान वास्तु कहलाती है। यह कुल का नाश करती है।
आग्नेय में नीची और नैऋत्य, ईशान तथा वायव्य में ऊँची भूमि शोक वास्तु कहलाती है। यह मृत्युदायक है।
ईशान,आग्नेय व पश्चिम में ऊँची और नैऋत्य में नीची भूमि श्वमुख वास्तु कहलाती है। यह दरिद्र करने वाली है।
नैऋत्य,आग्नेय व ईशान में ऊँची तथा पूर्व व वायव्य मेम नीची भूमि ब्रह्मघ्न वास्तु कहलाती है। यह निवाश करने योग्य नहीं है।
आग्नेय में ऊँँची, ईशान तथा वायव्य में नीची भूमि स्थावर वास्तु कहलाती है। यह शुभ है। यह शुभ है।
नैऋत्य में ऊँची और आग्नेय, वायव्य व ईशान में नीची भूमि स्थंडित वास्तु कहलाती है। यह शुभ है
ईशान में ऊँची और वायव्य, आग्नेय व नैऋत्य में नीची भूमि शांडुल वास्तु कहलाती है। यह अशुभ है।
त्रिदिशा भूमि के लिए:-
दक्षिण, पश्चिम, नैऋत्य और वायव्य की ओर ऊँची भूमि गजपृष्ठ भूमि कहलाती है। यह धन, आय और वंश की वृद्धि करने वाली है।
मध्य में ऊँची तथा चारों ओर नीची भूमि कूर्मपृष्ठ भूमि कहलाती है। यह उत्साह, धन-धान्य तथा सुख देने वाली है।
पूर्व, आग्नेय तथा ईशान में ऊँची भूमि और पश्चिम में नीची भूमि दैत्यपृष्ठ भूमि है। यह धन, पुत्र, पशु आदि की हानि करने वाली तथा प्रेत-उपद्रव करने वाली है।
पूर्व-पश्चिम की ओर लंबी तथा उत्तर-दक्षिण में ऊँची भूमि नागपृष्ठ भूमि कहलाती है। यह उच्चाटन, मृत्युभय, स्त्री-पुत्रादि की हानि, शत्रुवृद्धि, मानहानि तथा धनहानि करने वाली है।
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वास्तु सिद्धान्त दक्षिण-पूर्व (अग्नि का पानी)—
वास्तु मे सिद्धान्त है कि अग्नि दिशा का पानी घर की महिलाओं और पुरुषों के बायें अंग के लिये हानिकारक है। मेरे घर का दरवाजा पूर्व में है और दक्षिण पूर्व में सीढियां है,उन सीढियों के नीचे पानी का नल लगा हुआ है। घर के अन्दर महिलाओं की समस्या मुख्य कारण था। उन कारणों में एक समस्या डाक्टरी कारण दूसरी समस्या पता नही कब घर में क्लेश पैदा हो जाये और पता नही कब पडौसियों से लडाई का माहौल बन जाये। घर में खाना तो बनाया जाये लेकिन कभी कभी ही सभी लोग साथ बैठ्कर खाना खायें,कभी कोई घर पर नही है और कभी कोई घर पर नही है। लडकियों के मामले में भी यह कारण समझ में आये कि पहले तो लडकियों की शिक्षा पूरी नही हो पायी और दूसरे लडकी का स्वभाव मनोरंजन के साधनों में अधिक लगता,गाने बजाने के साधन घर में चलते रहते,टीवी और सीडी की भरमार घर के अन्दर बनी रहने लगी। लडकों का स्वभाव अच्छा होने के बावजूद भी वे किसी न किसी प्रकार के नशे के आदी होने लगे जैसे तम्बाकू का सेवन करना और गुटका आदि को प्रयोग में लाने का आदी हो जाना। घर का मुखिया किसी ना किसी राजनीति कारण से जोड दिया जाना और अधिक काम होने के बावजूद भी काम का पूरा नही होना,किये गये काम के अन्दर कोई न कोई कमी रह जाना और धन की कमी बनी रहना। यह प्रभाव अक्समात नही बना,लगातार बनता रहा,किसी प्रकार से भी किये गये साधनों से कम नही हुआ। नल को वहाँ से हटाया तो नही केवल टोंटी को बन्द करने के बाद उसके अन्दर पोलीथीन लगा दी,जो भी साधन वहां पर पानी भरने वाले थे सभी को घर के पश्चिमोत्तर कोने में सिफ़्ट कर दिया,पानी को प्रयोग करने के लिये इसी दिशा को प्रयोग में लाया जाने लगा,घर की हालत सुधरने लगे,घर की महिलायें अपने अपने कामों को करने लगीं,स्वास्थ्य की कमियां दूर होने लगीं,सभी के दिमाग अपने आप सुधरने लगे,धन की हालत सुधरने लगी काम समय से होने लगा,लडकों को जो आदत लगातार तामसी चीजों को लेने की लग गयी थी वह कम होकर छूटने लगी।
वास्तु सिद्धान्त से घर के वायव्य (पश्चिमोत्तर दिशा में पानी)—
पानी को अग्नि से उठाकर इस दिशामें लाते ही मेरे द्वारा किये जाने वाले काम से मन हटने लगा और दूसरे कामों में मन जाने लगा,जो काम किसी समय में बहुत मेहनत करने के बाद भी नही पूरे होते थे वे आराम से पूरे होने लगे और अधिक धन कमाने की इच्छा होने लगी। बच्चों का जो पढाई का मूड समाप्त होने लगा था वह फ़िर से शुरु होने लगा,घर से टीवी और डिस से ध्यान हटने लगा। पानी को इस दिशा में लाते ही किये गये काम की प्रसिद्धि होने लगी और जो काम लोग नही चाहते वही काम आराम से होने लगे। अक्सर कहा जाता है कि घर के अन्दर जब भी क्लेश होता है तो वह किसी न किसी प्रकार की कमी से ही होता है। जब कमियां पूरी होने लगीं तो क्लेश भी कम होने लगा। कुछ समय उपरान्त प्रसिद्धि इतनी बढ गयी कि लोग साथ छोडने को तैयार ही नही होते थे,काम को दिन रात मिलकर भी किया जाता तो काम की कमी नही होती थी। पहले पानी की प्लास्टिक की टंकी मकान के ईशान कोण के बरामदे के ऊपर छत पर रखी थी,लेकिन वायव्य में पानी लाने के कारण उसी दिशा में बनी रसोई के ऊपर पानी की टंकी लानी पडी,रसोई जो पहले अग्निकोण में थी उसे वायव्य दिशा में जहां पानी की टंकी रखी थी वहां लाना पडा। रसोई के आते ही घर के अन्दर मेहमानों की संख्या बढने लगी।
वास्तु सिद्धान्त वायव्य और उत्तर दिशा की रसोई से भोजन के मदों में अधिक खर्चा–
जिन लोगों को मैं पिछले चालीस सालों से भूल चुका था,जो रिस्तेदार किसी मरी मौत में भी सामने आने की कोशिश नही करते थे,पता नही उनके अन्दर कहां से मेरे परिवार के प्रति ख्याल आना शुरु हुआ और वे आने लगे। आना और जाना तो माना जा सकता है लेकिन पन्द्रह दिन महिना भर रहना और भी बडी बात मानी जा सकती है। एक एक बार में दस दस लोग आकर घर के अन्दर रहने लगे,पहले घर के खर्चो के लिये मकान के नीचे के भाग में गुजारे के खर्चे के लिये किरायेदार को रखना पडता था लेकिन पानी और भोजन की दिशा को बदलते ही किरायेदारों को भी घर से बाहर निकालना पडा,और जो कमरे खाली हुये थे उन कमरों में रिस्तेदारों को टिकाना पडा। हमारी कालोनी मे सीवर लाइन नही है,लोगों ने अपने अपने घर के बाहर पिट बनवाकर उनके अन्दर जल-मल जमा करने की आदत बना रखी है। उसी प्रकार के शौचालय भी प्रयोग में लाये जाते है। उन शौचालयों का पानी उन्ही पिट में जाकर जमा होता है और रेतीला इलाका होने के कारण वह अपने आप सूखता रहता है,जब पानी अग्नि में था तो अक्सर सीपर को बुलाकर शौचालयों को साफ़ करवाना पडता था,लेकिन जल का स्थान बदलते ही शौचालय भी अपने आप साफ़ रहने लगे,कोई महिने दो महिने में सीपर को बुलाकर साफ़ करवाने की शुरुआत हो गयी। कितने ही मेहमान आये और चले गये लेकिन शौचालय सम्बन्धी परेशानी नही आयी। खाने के मदों में मेहमानों के हिसाब से ही खर्चा होने लगा। एक गैस सिलेण्डर जो पहले एक महिना चला करता था वह दस या बारह दिन में ही समाप्त होने लगा,पत्नी को बाजार से ही फ़ुर्सत नही,कभी सब्जी लेने के लिये कभी राशन लेने के लिये और अधिकतर मुहल्ले का ही बनिया से ही सामान को लाया जाने लगा,कहाँ तेल एक या दो किलो महिने में खत्म होता था वह अब पीपे में आने लगा फ़िर भी तेल की कमी महसूस होने लगी। लेकिन एक बात जरूर समझ से बाहर की थी कि बच्चों के द्वारा काम करने के अन्दर उतनी ही उन्नति होने लगी और मुझे भी अपने काम से धन की आमदन में यह समझ में नही आता था कि कितना आया है और कितना चला गया है। जो बिजली के बिल पहले चार सौ देने में जोर आता था वह बिजली के बिल चार हजार भी देने में जोर नही आता था,पहले एक टेलीफ़ोन का बिल समय से नही जमा हो पाता था,वहां अब पांच पांच मोबाइल काम कर रहे थे। आने जाने वालों के लिये भोजन और अन्य कामों से घर के अन्दर की महिलाओं को टीवी की तो छोडो गाने सुनने की भी फ़ुर्सत नही थी। वायव्य की रसोई लाते ही एक बात और हुयी कि बडा लडका अपनी पत्नी के साथ अपने ससुराल गया और वहां से उसे जाने क्या जमी कि वह मेरे पैत्रिक गांव में जाकर रहने लगा,मैने जब कारण पूंछा तो कुछ नही बताया लेकिन पत्नी ने बताया कि उसके ससुराल वाले कह रहे थे कि वह अब घर नही रह गया है,वह अब धर्मशाला बन गयी है जहां लोग आते है खाते है रुकते है और चले जाते है,इसलिये वह अलग रहने लगा है।
वास्तु सिद्धान्त ईशान में ऊंचा पानी घर के मुखिया को जुकाम सम्बन्धी बीमारी—
मुझे जुकाम नही जाता था कितने ही इलाज कर लिये कितनी ही दवाइयां खालीं लेकिन नाक सुर्र सुर्र करती ही रहती थी। गले में कफ़ घडघडाता ही रहता था। जाने कहां कहां से इलाज करवा लिये लेकिन कोई फ़ायदा नही हुआ। कोई अच्छी दवा मिल जाती थी तो कुछ दिन के लिये कम हो जाता था लेकिन फ़िर जरा सा मौसम चेंज हुआ कि फ़िर वही हाल हो जाता था। पानी की टंकी जैसे ही वायव्य दिशा में रसोई की छत पर आयीं कि तीसरे या चौथे दिन से नाक का पानी सूख गया। आज कोई दवा नही खा रहा हूँ और आराम से रात को नींद आती है लेकिन रात को सोने का समय पता नही कब मिलता है इसलिये जरूर परेशान हूँ काम करने से फ़ुर्सत ही नही है सोने का क्या काम ? रात को चार चार बजे तक काम करना और फ़िर सो जाना और सुबह जागकर सीधे काम पर बैठ जाना और जब काम करते करते ही पेशाब लगती है तो बाथरूम तक जाना और फ़िर वापस आकर काम करने लग जाना,भोजन वही तीन बजे से चार बजे के बीच में करना,बीच में काम को बन्द करने के बाद नहाना पूजा पाठ करना और भोजन करने के बाद एक घंटे के लिये आराम करना और फ़िर काम करने लग जाना। काम के दौरान कम से कम चालीस चाय पीना और लगातार धूम्रपान करना। इस आदत से परेशान होकर पत्नी ने एक बार कहना चालू किया कि या तो जल्दी से कोई बडी बीमारी हो जायेगी या कोई बीमारी अचानक परेशान करेगी,इस डर से उन्होने मुझे सीधा डाक्टर से चैक करवाने के लिये बोला,डाक्टर ने अपनी सलाह से कई चैक अप करवाने के लिये लिख दिया और जब रिपोर्ट आयी तो सभी को हैरानी कि किसी भी प्रकार की फ़ेफ़डों में या गले में या मुंह में परेशानी नही,लोग चार चार चाय पीने के बाद डायबटीज के मरीज बन जाते है लेकिन यहां न कोई शुगर की बीमारी और ना ही कोई फ़ेफ़डों की बीमारी,डाक्टर की रिपोर्ट पढने के बाद पत्नी को भी आश्चर्य हुआ लेकिन यह सब मुझे अन्दाज लग रहा था कि घर के वास्तु से या टंकियों के बदलाव से या काम की अधिकता से हुआ था।
वास्तु सिद्धान्त उत्तर की ऊंची दिवाल धन हानि देती है—
मेरे पडौस में एक नाई का मकान है,उसके मालिक की अपनी नाई की दुकान है और खुद के कोई औलाद नही होने से वह अपने दो भतीजों को अपने पास रखता है एक भतीजा सरकारी नौकरी में है और दूसरा प्राइवेट कम्पनी में नौकरी करता है। घर का मकान और आमदन अच्छी,मकान मालिकिन को मैं भाभी जी कहकर पुकारता था,ऊपर से बहुत अच्छे स्वभाव की थीं,लेकिन अन्दर से उन्हे कोई भी प्रोग्रेस मेरी या मेरे बच्चों की बहुत बुरी लगती थी,वे किसी झाडफ़ूंक वाले के पास भी जाती थी और रोजाना शाम को दरवाजे पर खडे होकर कोई पूजा करती थी। मुहल्ले वालों से किसी ना किसी बात को बढा चढाकर कहना उनकी आदत थी। जब तक किसी न किसी से लडाई न करवा दें तब तक उनको चैन नही आता था,मेरे सामने भी पूर्वी भारत के एक सज्जन रहते है पता नही उन्होने किस बात को उनसे कह दिया कि उनकी पत्नी बिना बातचीत ही मुझे और मेरे घर वालों को गाली देने लगीं,बच्चों को सहन नही हुआ तो मैने उनसे चलाकर पूंछा कि आपको मैने तो कुछ कह नही दिया है,फ़िर भी आप लोग गाली क्यों देते हो,उन्होने कहा कि मेरी नाली सामने है और मैं कचडा तुम्हारे दरवाजे के सामने लगाऊगी तुम रोक सको तो रोक लेना,मैने उनसे इतना ही कहा कि कचडा रोड पर आप लगाओगे,आपके अपने हिस्से में लगाते रहना मेरे घर के दरवाजे पर लगाओगे तो उसका भी उपाय करना पडेगा,उसके बाद उन्होने कचडा घर के आगे लगाना शुरु कर दिया,मैने ध्यान नही दिया सीपर को पचास रुपया और महिने के देकर उस कचडे को भी उठवाने लगा,मैं किसी से लडाई नही लडना चाहता था,जब शांति से काम निकले तो लडने की बात ही नही होती है। उसी दौर में मेरे पास काफ़ी लोग आने लगे,सर्दी गर्मी और बरसात के डर से मैने अपने कमरे के सामने एक टीन शैड बनाने के लिये सोचा और नाई के मकान की तरफ़ से जो मेरे घर के दक्षिण में है दिवाल को ऊंचा करने के बाद टिन शैड डलवा दिया। वह टिन शैड कमरे की ऊंचाई का था,इसलिये नाई की तरफ़ से मकान ऊंचा हो गया,पांच ईंट की ऊंची दिवाल टिन शैड के ऊपर से भी बनवा दी जिससे आन्धी तूफ़ान में टिन उडे नहीं। उस टिन के लगवाने के तीसरे महिने ही पता लगा कि नाई अपने मकान को बेचकर जा रहा है,मैने उनसे पूंछा कि अचानक आपको यह मकान बेचने की क्या बात सूझी,वह बोले कि मेरा धन्धा तीन महिने से बन्द है और भतीजे भी अपनी अपनी नौकरी छोड्कर बैठे है और उनके यहां किसी दहेज सम्बन्धी केश चल रहा था उसका भी फ़ैसला भतीजे के विरुद्ध हुआ है सो उसके लिये भी पैसा देना पडेगा,आखिर में छठे महिने वे अपने मकान को एक पंडित को बेच कर चले गये। मुहल्ले की लडाइयां खत्म हो गयीं थी,लोग आपस में एक दूसरे से बात करने लगे थे। उस पंडित ने जब से मकान खरीदा तब से उसके भी धन वाले कारण बनने लगे,हालांकि उसका मेडिकल स्टोर था और दवाइयों से अच्छी इनकम थी लेकिन वह सब फ़ेल होने लगे,वह पंडित भी चौथे महिने मकान को बेचकर चला गया और उस मकान को एक सीपर ने खरीदा,वह रिटायर्ड है किसी सरकारी अस्पताल में काम करता था,उसके बच्चे सभी अपने अपने मकान में है वह मकान अधिकतर बंद ही रहता है।
वास्तु सिद्धान्त दक्षिण पश्चिम का पडौसी बुराई करता है—
हमारे मकान के दक्षिण पश्चिम दिशा में एक राजपूत का ही मकान है। काफ़ी अच्छे लोग है लेकिन जब भी कोई मेरे बारे में बात करता है तो उससे जाने क्या क्या कहने लगते है। जब भी होली या कोई मुहल्ले का कार्यक्रम होता है तो चन्दा लेने के लिये आते है मुहल्ले से अधिक चन्दा देता हूँ लेकिन फ़िर भी उनके अन्दर जाने क्या हवा भरी हुयी है कि जब देखो तब और जहां सुनो वहां केवल मेरी ही बुराई करते है। उनके मकान का दरवाजा पश्चिम दक्षिण के कोने में ही है। दो भाई एक ही मकान में रहते है और दोनो ही अपने अपने अनुसार काम करते है,बडा भाई पिता की नौकरी पर लगा है और छोटा भाई खुला धन्धा करता है। दोनो की पहले शादी एक ही घर से दो बहिनों के साथ हुयी थी,लेकिन पता नही किसी आपसी झगडे की बजह से दोनो को छोड दिया था,उनकी माताजी के मरने पर वह दोनो बहिने अपने घर वालों के साथ आयीं थी। न्याय पंचायत भी हुयी लेकिन फ़ैसला हो नही सका,छोटी तो अपने घर वालों के खिलाफ़ होकर रहने लगी लेकिन बडी वाली अपने घर वापस चली गयी,पांच छ: महिने के बाद पता लगा कि छोटी वाली मिट्टी का तेल डाल कर जल कर मर गयी और बाद में दोनो भाइयों ने अपने अपने अनुसार दूसरी शादी कर ली।
वास्तु सिद्धान्त नैऋत्य का दरवाजा बुरे काम और अनहोनी देता है—
दोनो भाई अपने अपने अनुसार रहते है कई बार छोटे भाई के लिये अखबारों में आता है कि वह किसी न किसी बुरे काम के अन्दर पकडा गया है,और उसके मित्र दोस्त सभी किसी न किसी कारण से घर के अन्दर जमा होते रहते है घर के अन्दर ही डैक चलना उछल कूद और शराब मांस की पार्टी होना आदि बातें पूरे मुहल्ले के सामने होती है। किसी बात का उन्हे डर इसलिये नही लगता है क्योंकि वे सभी प्रकार के बुरे लोगों से सम्पर्क रखते है,पुलिस थाने गुंडे सभी उनकी जेब में होते है इसलिये जानकर भी कोई उनसे बुराई नही लेता है,एक दो ने सामने आने की कोशिश भी की लेकिन किसी न किसी बहाने उन्होने उन्हे बुरी तरह से बेइज्जत किया,इस डर से कोई उनके सामने नही आता है,सही मायनों में कहा जाये तो वह नैऋत्य का दरवाजा उनके लिये आसुरी वृत्तियों से पूर्ण कर रहा है। इस दरवाजे के बाद भी एक बात और सामने देखी जाती है कि सरकारी जमीन सडक के बाद है उसे भी उन्होने फ़र्जी तरीके से बेच दिया है,कानून का उन्हे किसी प्रकार से भी डर नही लगता है। उनके सामने ढलान है तथा घर से निकले पानी का बहाव दक्षिण की तरफ़ है।
वास्तु सिद्धान्त घर से निकले पानी का बहाव दक्षिण दिशा में होने से धन बुरे कामों में खर्च होता है—
मुझे याद है कि पिताजी ने घर बनाया था,उस जमाने में घर कच्चे बनते थे। कच्चे घर की नाली को उन्होने जानबूझ कर पूर्व की तरफ़ निकाला था,और उस नाली को बनाने के लिये काफ़ी दिक्कते आयीं थी एक ऊंचे टीले को काटकर बनायी गयी नाली में हर बरसात में पानी का बहाव तेज होने और उस नाली में टीले की मिट्टी के ढह जाने से जो मिट्टी भरती थी उसे रात को लालटेन की रोशनी में नाली से निकालना पडता था,जब कई साल यह समस्या आयी तो उस नाली को पक्की ईंटों से ढक कर बना दिया गया था,लेकिन तीन या चार साल बाद उस नाली को और उसके अन्दर जमा मिट्टी को साफ़ करवाना पडता था। पूर्व दिशा में नाली होने के बाद घर का जो भी खर्चा होता था वह केवल धार्मिक कार्यो में ही खर्च होता था,कभी कथा कभी भागवत कभी रामायण और कभी आने जाने वाले साधु सन्तो और धार्मिक लोगों पर ही घर का धन खर्च होता था,जितने लोग खाने वाले आते थे उससे अधिक खेती में पैदा हो जाता था,कभी इस बात की कमी नही महसूस की गयी कि अनाज का टोटा पडा है। वर्तमान में मेरे मकान की नाली भी पूर्व दिशा में है और पानी का बहाव भी पूर्व की ओर है,इस प्रकार से आज भी हमारे घर में जो भी खर्चा होता है वह धार्मिक कामों मे ही अधिक खर्च होता है। इसके विपरीत पीछे वाले घर का पानी दक्षिण में जाने से उस घर में जो भी खर्चा होता है वह बुरे कामों में ही होता है। पहले माँ के मरने पर खर्चा हुआ फ़िर बहू के मरने पर पुलिस और उसके मायके वालों को दिया जाने वाला खर्चा हुआ और जब कोई और बुरा काम नही होता है तो खर्चा शराब कबाब और नाच तमासे में खर्च हो रहा है। कम से कम दस मुकद्दमे बुरे कामो को करने की एवज में भी चल रहे है उनके लिये वकील और अदालतों में भी खर्चा इसी प्रकार से हो रहा है,कोई न कोई पुलिस वाला आये दिन उनके घर आता ही रहता है और वह भी किसी सम्मन या नोटिस की तामील के लिये ही आता होगा।
वास्तु नियम घर के उत्तर दिशा में पानी का बहाव धन को लडकियों के प्रति खर्च करवाता है—
इस सिद्धान्त को मैने कई घरों की गणना करने के बाद देखा कि जिन घरों का पानी उत्तर दिशा की तरफ़ निकलता है उन घरों का धन किसी न किसी कारण से लडकियों के प्रति ही खर्च किया जाता है। हमारे घर के दक्षिण दिशा में एक शर्मा जी रहते है उनके घर का दरवाजा और घर से निकलता हुआ पानी उत्तर दिशा की तरफ़ ही है,उनके चार पुत्रियां और एक पुत्र है,उन लडकियों की पढाई लिखाई और शादी सम्बन्ध में ही उनका धन जा रहा है,जब कि लडका न तो पढाई में तेज है और न ही किसी प्रकार से शरीर से स्वस्थ है। इसी प्रकार से एक हमारे अच्छे जानकार है उनकी दुकान फ़ोटोग्राफ़ी की है अच्छा पैसा आता है उन्होने भी अपनी लडकी के इलाज में पूरी कमाई लगा दी है। एक सज्जन का घर का मुंह तो पूर्व की तरफ़ ह लेकिन पानी घर से निकला हुआ सीधा उत्तर की तरफ़ जाता है,उनके भी चार लडकियां है और दो लडके,एक लडका मन्द बुद्धि का है और दूसरा जुआरी शराबी सभी गुणों से भरपूर है। पूरा घर लडकियों पर ही निर्भर है। इसके अलावा उनके घर में शौचालय पूर्वोत्तर दिशा (ईशान) में बना है,अधिकतर उनके घर के बारे में अफ़वाहें उनके मुहल्ले में और जान पहिचान वालों में सुनी जाती है।
वास्तु नियम ईशान का शौचालय घर की महिलाओं को अनैतिकता की तरफ़ ले जाने में सहायक है–
घर की ईशान दिशा धर्म और भाग्य की दिशा बताई जाती है,इस दिशा में शौचालय बनाने से घर के सदस्यों के अन्दर अनैतिकता पनपने लगती है,घर के बच्चे माता पिता की बात को नही मानते है और किसी भी प्रकार के अनैतिक कार्य को कर सकते है। इस बात की सत्यता को जांचने के उद्देश्य से मैने छानबीन की तो पता लगा कि जिन सज्जन के चार लडकिया है और उनके दोनो बच्चे एक मंद बुद्धि और दूसरा शराबी जुआरी है। घर के मुखिया को दोनो बच्चे जब मन में आता है तभी पीटना चालू कर देते है,माँ का भी यही हाल है वह भी अपने देवर को पूरा समर्थन देती है और अपने पति को जूती की नोक पर रखती है। उन्होने अपनी बडी लडकी की शादी दक्षिण दिशा में की वह अपने घर से लडाई करने के बाद अपने पति के साथ आकर उसी घर में एक कमरे में रहने लगी। पति तो प्राइवेट कम्पनी में नौकरी करता है और लडकी अपने मिलने वालों से घिरी रहती है,उससे छोटी लडकी की शादी पूर्व दिशा में की गयी उसका पति शराबी है और चोरी चकारी के कामों के अन्दर अधिकतर जेल में ही रहता है,वह अपने बच्चों का पेट घर घर में काम करने के बाद पाल रही है,अधिकतर वह अपनी माँ के पास ही रहती है। तीसरी लडकी की शादी घर से उत्तर दिशा में की है उसका पति अधिकतर घर से बाहर ही रहता है और साल में दो चार दिन के लिये घर आता है,कहने को तीन बच्चे है लेकिन एक भी बच्चा न तो शिक्षा में है और ना ही किसी काम को करते है सभी दिन भर सडकों पर घूमते रहते है कभी किसी का सामान उठाकर कबाडी वाले को बेचना और कभी उठाई गीरी करने के बाद अपने बचपने को बरबाद करने का ही उनका काम है,वह लडकी भी अपने कुंआरे देवर के साथ जिसकी उम्र पैंतीस साल की है के साथ रहती है उसने भी शादी से मना कर दिया है। चौथी लडकी की शादी भी दक्षिण दिशा में रहती है उसके पति की उम्र उससे लगभग दो गुनी है वह भी घरों को बनाने और चिनाई आदि का काम करता है,वह लडकी भी अपनी माँ के पास अधिकतर रहती है,उस घर में रहने वाले लोगों केलिये अधिकतर मुहल्ले वाले और जान पहिचान वाले नाक ही सिकोडा करते है,कोई भी भला आदमी उनके घर जाने की हिम्मत नही करता है और जिसके घर भी उस घर की लडकियां आजाती है उस घर के लिये लोग उंगलियां उठाने लगते है। पिता कोई काम नही करता है,माँ कोई काम नही करती है लडका मन्द बुद्धि है,दूसरा शाम को शराब के नशे में धुत देखा जाता है,देवर अधिकतर घर पर ही पडा रहता है तो सोचने लायक भी बात है कि घर का खर्चा कैसे चलता होगा,जब कि पूरे मुहल्ले से कीमती साडियां और जेवर उनके पास है,लाली लिपिस्टिक उनके चेहरों से छूटती नही है,जब भी उस घर के सामने से निकलो तो एक या दो लडकियां छज्जे पर खडी हुयी ही दिखती है। इसके अलावा भी एक दो जगह पर इसी बात को देखा,कोई तो खुला है और कोई छुपा हुआ गलत कामों के अन्दर अपने को लगाये है,जिन घरों में पुरुष संतान है वह अपने माता पिता को कुछ नही समझती है और अधिकतर मामलों में पिता को ही पिटता हुआ देखा जा सकता है,इस प्रकार के घरों में अधिकतर रिस्ते धर्म भाई और धर्म बहिन के बने हुये अधिक मिलते है,धर्म भाई और बहिन उसी कैटेगरी के होते है,जिनकी या तो शादियां नही हुयी होती है और हो भी गयी होती है तो वे अपने अपने जीवन साथी से दूर रह रहे होते है,नौकरी पेशा वाले लोग और रोजाना के काम करने वाले लोग भी इसी प्रकार के घरों में रहकर अपने एकांत जीवन को आराम से निकालते देखे जा सकते है। अक्सर इस प्रकार के घरों में किराये से दिये जाने वाले कमरे फ़मिली के साथ किराये से रहने वाले लोगों को नही दिये जाते है और जो फ़ैमिली के साथ रहने वाले लोग होते भी है उनके अन्दर या तो अनैतिक रूप से भाग कर आये लोग होते है या फ़िर अन्य किसी कारण से गलत रिस्ते लेकर चलने वाले लोग होते है।
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वास्तु शास्त्र एवं ज्योतिष शास्त्र दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं क्योंकि दोनों एक-दूसरे के अभिन्न अंग हैं। जैसे शरीर का अपने विविध अंगों के साथ अटूट संबंध होता है। ठीक उसी प्रकार ज्योतिष शास्त्र का अपनी सभी शाखायें प्रश्न शास्त्र, अंक शास्त्र, वास्तु शास्त्र आदि के साथ अटूट संबंध है। ज्योतिष एवं वास्तु शास्त्र के बीच निकटता का कारण यह है कि दोनों का उद्भव वैदिक संहितायों से हुआ है। दोनों शास्त्रों का लक्ष्य मानव मात्र को प्रगति एवं उन्नति की राह पर अग्रसर कराना है एवं सुरक्षा देना है। अतः प्रत्येक मनुष्य को वास्तु के अनुसार भवन का निर्माण करना चाहिए एवं ज्योतिषीय उपचार (मंत्र, तंत्र एवं यंत्र के द्वारा) समय-समय पर करते रहना चाहिए, क्योंकि ग्रहों के बदलते चक्र के अनुसार बदल-बदल कर ज्योतिषीय उपचार करना पड़ता है। वास्तु तीन प्रकार के होते हैं- त्र आवासीय – मकान एवं फ्लैट त्र व्यावसायिक -व्यापारिक एवं औद्योगिक त्र धार्मिक- धर्मशाला, जलाशय एवं धार्मिक संस्थान। वास्तु में भूमि का विशेष महत्व है। भूमि चयन करते समय भूमि या मिट्टी की गुणवत्ता का विचार कर लेना चाहिए।
भूमि परीक्षण के लिये भूखंड के मध्य में भूस्वामी के हाथ के बराबर एक हाथ गहरा, एक हाथ लंबा एवं एक हाथ चौड़ा गड्ढा खोदकर उसमें से मिट्टी निकालने के पश्चात् उसी मिट्टी को पुनः उस गड्ढे में भर देना चाहिए। ऐसा करने से यदि मिट्टी शेष रहे तो भूमि उत्तम, यदि पूरा भर जाये तो मध्यम और यदि कम पड़ जाये तो अधम अर्थात् हानिप्रद है। अधम भूमि पर भवन निर्माण नहीं करना चाहिये। इसी प्रकार पहले के अनुसार नाप से गड्ढा खोद कर उसमें जल भरते हैं, यदि जल उसमें तत्काल शोषित न हो तो उत्तम और यदि तत्काल शोषित हो जाए तो समझें कि भूमि अधम है। भूमि के खुदाई में यदि हड्डी, कोयला इत्यादि मिले तो ऐसे भूमि पर भवन नहीं बनाना चाहिए।
यदि खुदाई में ईंट पत्थर निकले तो ऐसा भूमि लाभ देने वाला होता है। भूमि का परीक्षण बीज बोकर भी किया जाता है। जिस भूमि पर वनस्पति समय पर उगता हो और बीज समय पर अंकुरित होता हो तो वैसा भूमि उत्तम है। जिस भूखंड पर थके होकर व्यक्ति को बैठने से शांति मिलती हो तो वह भूमि भवन निर्माण करने योग्य है। वास्तु शास्त्र में भूमि के आकार पर भी विशेष ध्यान रखने को कहा गया है। वर्गाकार भूमि सर्वोत्तम, आयताकार भी शुभ होता है। इसके अतिरिक्त सिंह मुखी एवं गोमुखि भूखंड भी ठीक होता है। सिंह मुखी व्यावसायिक एवं गोमुखी आवासीय दृष्टि उपयोग के लिए ठीक होता है।
किसी भी भवन में प्राकृतिक शक्तियों का प्रवाह दिशा के अनुसार होता है अतः यदि भवन सही दिशा में बना हो तो उस भवन में रहने वाला व्यक्ति प्राकृतिक शक्तियों का सही लाभ उठा सकेगा, किसकी भाग्य वृद्धि होगी। किसी भी भवन में कक्षों का दिशाओं के अनुसार स्थान इस प्रकार होता है।
वास्तुशास्त्र को लेकर हर प्रकार से प्रयोग किया जा सकता है। भूखण्ड एवं भवन के दोषपूर्ण होने पर उसे उचित प्रकार से वास्तुनुसार साध्य बनाया जा सकता है। हमने अपने अनुभव से जाना है कि जिन घरों के दक्षिण में कुआं पाया गया उन घरों की गृहस्वामिनी का असामयिक निधन आकस्मिक रूप से हो गया तथा घर की बहुएं चिरकालीन बीमारी से पीड़ित मिली। जिन घरों या औद्योगिक संस्थानों ने नैऋत्य में बोरिंग या कुआं पाया गया वहां निरन्तर धन नाश होता रहा, वे राजा से रंक बन गये, सुख समृध्दि वहां से कोसों दूर रही, औद्योगिक संस्थानों पर ताले पड़ गये। जिन घरों या संस्थानों के ईशान कोण कटे अथवा भग्न मिले वहां तो संकट ही संकट पाया गया। यहां तक कि उस गृहस्वामी अथवा उद्योगपति की संतान तक विकलांग पायी गयी। जिन घरों के ईशान में रसोई पायी गयी उन दम्पत्तियों के यहां कन्याओं को जन्म अधिक मिला या फिर वे गृह कलह से त्रस्त मिले। जिन घरों में पश्चिम तल नीचा होता है तथा पश्चिमी नैऋत्य में मुख्य द्वार होती है, उनके पुत्र मेधावी होने पर भी निकम्मे तथा उल्टी-सीधी बातों में लिप्त मिले हैं।
वास्तु शास्त्र के आर्षग्रन्थों में बृहत्संहिता के बाद वशिष्ठसंहिता की भी बड़ी मान्यता है तथा दक्षिण भारत के वास्तु शास्त्री इसे ही प्रमुख मानते हैं। इस संहिता ग्रंथ के अनुसार विशेष वशिष्ठ संहिता के अनुसार अध्ययन कक्ष निवृत्ति से वरुण के मध्य होना चाहिए। वास्तु मंडल में निऋति एवं वरुण के मध्य दौवारिक एवं सुग्रीव के पद होते हैं। दौवारिक का अर्थ होता है पहरेदार तथा सुग्रीव का अर्थ है सुंदर कंठ वाला। दौवारिक की प्रकृति चुस्त एवं चौकन्नी होती है। उसमें आलस्य नहीं होती है। अतः दौवारिक पद पर अध्ययन कक्ष के निर्माण से विद्यार्थी चुस्त एवं चौकन्ना रहकर अध्ययन कर सकता है तथा क्षेत्र विशेष में सफलता प्राप्त कर सकता है। पश्चिम एवं र्नैत्य कोण के बीच अध्ययन कक्ष के प्रशस्त मानने के पीछे एक कारण यह भी है कि यह क्षेत्र गुरु, बुध एवं चंद्र के प्रभाव क्षेत्र में आता है। बुध बुद्धि प्रदान करने वाला, गुरु ज्ञान पिपासा को बढ़ाकर विद्या प्रदान करने वाला ग्रह है। चंद्र मस्तिष्क को शीतलता प्रदान करता है। अतः इस स्थान पर विद्याभ्यास करने से निश्चित रूप से सफलता मिलती है।
टोडरमल ने अपने ‘वास्तु सौखयम्’ नामक ग्रंथ में वर्णन किया है कि उत्तर में जलाशय जलकूप या बोरिंग करने से धन वृद्धि कारक तथा ईशान कोण में हो तो संतान वृद्धि कारक होता है। राजा भोज के समयंत्रण सूत्रधार में जल की स्थापना का वर्णन इस प्रकार किया-’पर्जन्यनामा यश्चाय् वृष्टिमानम्बुदाधिप’। पर्जन्य के स्थान पर कूप का निर्माण उत्तम होता है, क्योंकि पर्जन्य भी जल के स्वामी हैं। विश्वकर्मा भगवान ने कहा है कि र्नैत्य, दक्षिण, अग्नि और वायव्य कोण को छोड़कर शेष सभी दिशाओं में जलाशय बनाना चाहिये। तिजोरी हमेशा उत्तर, पूर्व या ईशान कोण में रहना चाहिए। इसके अतिरिक्त आग्नेय दक्षिणा, र्नैत्य पश्चिम एवं वायव्य कोण में धन का तिजोरी रखने से हानि होता है। ड्राईंग रूम को हमेशा भवन के उत्तर दिशा की ओर रखना श्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि उत्तर दिशा के स्वामी ग्रह बुध एवं देवता कुबेर हैं। वाणी को प्रिय, मधुर एवं संतुलित बनाने में बुध हमारी सहायता करता है। वाणी यदि मीठी और संतुलित हो तो वह व्यक्ति पर प्रभाव डालती है और दो व्यक्तियों के बीच जुड़ाव पैदा करती है।
र्नैत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम) में वास्तु पुरुष के पैर होते हैं। अतः इस दिशा में भारी निर्माण कर भवन को मजबूती प्रदान किया जा सकता है, जिससे भवन को नकारात्मक शक्तियों के प्रभाव से बचाकर सकारात्मक शक्तियों का प्रवेश कराया जा सकता है। अतः गोदाम (स्टोर) एवं गैरेज का निर्माण र्नैत्य कोण में करते हैं। जिस भूखंड का ईशान कोण बढ़ा हुआ हो तो वैसे भूखंड में कार्यालय बनाना शुभ होता है। वर्गाकार, आयताकार, सिंह मुखी, षट्कोणीय भूखंड पर कार्यालय बनाना शुभ होता है। कार्यालय का द्वार उत्तर दिशा में होने पर अति उत्तम होता है।
पूर्वोत्तर दिशा में अस्पताल बनाना शुभ होता है। रोगियों का प्रतीक्षालय दक्षिण दिशा में होना चाहिए। रोगियों को देखने के लिए डॉक्टर का कमरा उत्तर दिशा में होना चाहिए। डॉक्टर मरीजों की जांच पूर्व या उत्तर दिशा में बैठकर करना चाहिए। आपातकाल कक्ष की व्यवस्था वायव्य कोण में होना चाहिए। यदि कोई भूखंड आयताकार या वर्गाकार न हो तो भवन का निर्माण आयताकार या वर्गाकार जमीन में करके बाकी जमीन को खाली छोड़ दें या फिर उसमें पार्क आदि बना दें।
भवन को वास्तु के नियम से बनाने के साथ-साथ भाग्यवृद्धि एवं सफलता के लिए व्यक्ति को ज्योतिषीय उपचार भी करना चाहिए। सर्वप्रथम किसी भी घर में श्री यंत्र एवं वास्तु यंत्र का होना अति आवश्यक है। श्री यंत्र के पूजन से लक्ष्मी का आगमन होता रहता है तथा वास्तु यंत्र के दर्शन एवं पूजन से घर में वास्तु दोष का निवारण होता है। इसके अतिरिक्त गणपति यंत्र के दर्शन एवं पूजन से सभी प्रकार के विघ्न-बाधा दूर हो जाते हैं। ज्योतिष एवं वास्तु एक-दूसरे के पूरक हैं। बिना प्रारंभिक ज्योतिषीय ज्ञान के वास्तु शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता और बिना ‘कर्म’ के इन दोनों के आत्मसात ही नहीं किया जा सकता। इन दोनों के ज्ञान के बिना भाग्य वृद्धि हेतु किसी भी प्रकार के कोई भी उपाय नहीं किए जा सकते।
वास्तुविद्या मकान को एक शांत , सुसंस्कृत और सुसज्जित घर में तब्दील करती है। यह घर परिवार के सभी सदस्यों को एक हर्षपूर्ण , संतुलित और समृद्धि जीवन शैली की ओर ले जाता है।
मकान में अपनी ज़रूरत से अधिक अनावश्यक निर्माण और फिर उन फ्लोर या कमरों को उपयोग में न लाना ,बेवजह के सामान से कमरों को ठूंसे रखना भवन के आकाश तत्व को दूषित करता है। नकारात्मक शक्तियों के दुष्प्रभाव से बचने के लिए सुझाव है कि भवन में उतना ही निर्माण करें जितना आवश्यक हो।
भाग्य का निर्माण केवल ज्योतिष और वास्तु से ही नहीं होता, वरन् इनके साथ कर्म का योग होना भी अति आवश्यक है। इसलिए ज्योतिषीय एवं वास्तुसम्मत ज्ञान के साथ-साथ विभिन्न दैवीय साधनाओं, वास्तु पूजन एवं ज्योतिष व वास्तु के धार्मिक पहलुओं पर भी विचार करना अत्यंत आवश्यक है। भाग्यवृद्धि में वास्तु शास्त्र का महत्व वास्तु विद्या बहुत ही प्राचीन विद्या है। ज्योतिष शास्त्र के ज्ञान के साथ-साथ वास्तु शास्त्र का ज्ञान भी उतना ही आवश्यक है जितना कि ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान। विश्व के प्राचीनतम् ग्रंथ ऋग्वेद में भी इसका उल्लेख मिलता है। वास्तु के गृह वास्तु, प्रासाद वास्तु, नगर वास्तु, पुर वास्तु, दुर्गवास्तु आदि अनेक भेद हैं।
भाग्य वृद्धि के लिए वास्तु शास्त्र के नियमों का महत्व भी कम नहीं है। घर या ऑफिस का वास्तु ठीक न हो तो भाग्य बाधित होता है। वास्तु और भाग्य का जीवन में कितना संयोग है? क्या वास्तु के द्वारा भाग्य बदलना संभव है? इस प्रश्न के उत्तर के लिए यह जानना आवश्यक है कि भाग्य का निर्माण वास्तु से नहीं अपितु कर्म से होता है और वास्तु का जीवन में उपयोग एक कर्म है और इस कर्म की सफलता का आधार वास्तुशास्त्रीय ज्ञान है। पांच आधारभूत पदार्थों भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश से यह ब्रह्मांड निर्मित है और ये पांचों पदार्थ ही पंच महाभूत कहे जाते हैं। इन पांचों पदार्थों के प्रभावों को समझकर उनके अनुसार अपने भवनों का निर्माण कर मनुष्य अपने जीवन और कार्यक्षेत्र को अधिक सुखी और सुविधा संपन्न कर सकता है।
स्थापत्य वेद के सिद्धांत वैदिक साहित्य के 4. क्षेत्रों प्रकृति के नियमों के 4. संरचनात्मक गतिमानों की पुष्टि करते हैं एवं इस प्रकार से घर या भवन जो स्थापत्य वेद के अनुसार निर्मित हुए हों, सतत् विस्तारित सृष्टि के संरचनात्मक गतिमानों के साथ ताल-मेल में होने से व्यक्ति एवं समाज के जीवन में समन्वय एवं स्थिरता का प्रभाव निर्मित करते हैं।
यह आवश्यक है कि व्यक्ति से संबंधित प्रत्येक वस्तु अपने पर्यावरण में ब्रह्माण्डीय सामन्जस्य में स्थापित करें इसका तात्पर्य है कि प्रत्येक वस्तु को स्थापत्य वेद के अनुसरण में होना चाहिए-प्रत्येक भवन को प्राकृतिक विधानों के अनुसार निर्मित किया जाना चाहिए-प्रत्येक वस्तु को वैदिक होना चाहिए ।
भारत का भारतीयकरण-वास्तु के अनुसार घरों एवं नगरों का पुनर्निर्माण वैदिक जीवन की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विशेषता है, जो समस्याओं के निवारण, रोगों एवं कष्टों के समाधान में बड़ा योगदान करती है, इसके द्वारा राष्ट्रीय वित्तीय संसाधनों की बचत भी होगी जो सामान्यतः समस्याओं के समाधान में व्यय किये जाते हैं ।
वास्तु सिद्धांत के अनुरूप निर्मित भवन एवं उसमें वास्तुसम्मत दिशाओं में सही स्थानों पर रखी गई वस्तुओं के फलस्वरूप उसमें रहने वाले लोगो का जीवन शांतिपूर्ण और सुखमय होता है। इसलिए उचित यह है कि भवन का निर्माण किसी वास्तुविद से परामर्श लेकर वास्तु सिद्धांतों के अनुरूप ही करना चाहिए। इस तरह, मनुष्य के जीवन में वास्तु का महत्व अहम होता है। इसके अनुरूप भवन निर्माण से उसमें सकारात्मक ऊर्जा का वास होता है। फलस्वरूप उसमें रहने वालों का जीवन सुखमय होता है। वहीं, परिवार के सदस्यों को उनके हर कार्य में सफलता मिलती है।