केसे बने वास्तु सम्मत मंदिर..?????
पूरे विश्व में धर्म के प्रति आस्था रखने वाले देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। देवी-देवताओं की पूजा-प्रार्थना, आराधना करने के लिए मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च, मठ इत्यादि धार्मिक स्थलों का निर्माण किया जाता है। प्राचीन काल से भारत में पूजा के लिए भव्य मंदिरों का निर्माण किया जाता रहा है। सदियों पहले निर्मित हुए कई प्राचीन मंदिरों के प्रति जनमानस में आज भी अनंत श्रद्धा है। इन मंदिरों की कृति समय के साथ-साथ बढ़ती ही जा रही है जैसे-जम्मू स्थित माता वैष्णों देवी का मंदिर, कोलकाता का कालीमाता का मंदिर, काशी विश्वनाथ मंदिर, तिरुपति बालाजी का मंदिर आदि।
मंदिर का अर्थ :—-
मंदिर का अर्थ होता हैं मन से दूर कोई स्थान। मंदिर को हम द्वार भी कहते हैं। जैसे रामद्वारा, गुरुद्वारा आदि। मंदिर को आलय भी कह सकते हैं जैसे की शिवालय, जिनालय। लेकिन जब हम कहते हैं कि मन से दूर जो है वह मंदिर तो, उसके मायने बदल जाते हैं।द्वारा किसी भगवान, देवता या गुरु का होता है, आलय सिर्फ शिव का होता है और मंदिर या स्तूप सिर्फ ध्यान-प्रार्थना के लिए होते हैं, लेकिन वर्तमान में उक्त सभी स्थान को मंदिर कहा जाता है जिसमें की किसी देव मूर्ति की पूजा होती है।
मंदिर का अर्थ होता हैं मन से दूर कोई स्थान। मंदिर को हम द्वार भी कहते हैं। जैसे रामद्वारा, गुरुद्वारा आदि। मंदिर को आलय भी कह सकते हैं जैसे की शिवालय, जिनालय। लेकिन जब हम कहते हैं कि मन से दूर जो है वह मंदिर तो, उसके मायने बदल जाते हैं।द्वारा किसी भगवान, देवता या गुरु का होता है, आलय सिर्फ शिव का होता है और मंदिर या स्तूप सिर्फ ध्यान-प्रार्थना के लिए होते हैं, लेकिन वर्तमान में उक्त सभी स्थान को मंदिर कहा जाता है जिसमें की किसी देव मूर्ति की पूजा होती है।
।।ॐ।। ।।यो भूतं च भव्य च सर्व यश्चाधितिष्ठति।
स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम:।।-अथर्ववेद ..-8-.
भावार्थ : जो भूत, भविष्य और सबमें व्यापक है, जो दिव्यलोक का भी अधिष्ठाता है, उस ब्रह्म (परमेश्वर) को प्रणाम है। वहीं हम सब के लिए प्रार्थनीय और वही हम सबके लिए पूज्जनीय है।
स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम:।।-अथर्ववेद ..-8-.
भावार्थ : जो भूत, भविष्य और सबमें व्यापक है, जो दिव्यलोक का भी अधिष्ठाता है, उस ब्रह्म (परमेश्वर) को प्रणाम है। वहीं हम सब के लिए प्रार्थनीय और वही हम सबके लिए पूज्जनीय है।
परिभाषा :— मन से दूर रहकर निराकार ईश्वर की आराधना या ध्यान करने के स्थान को मंदिर कहते हैं। जिस तरह हम जूते उतारकर मंदिर में प्रवेश करते हैं उसी तरह मन और अहंकार को भी बाहर छोड़ दिया जाता है। जहाँ देवताओं की पूजा होती है उसे ‘देवरा’ या ‘देव-स्थल’ कहा जाता है। जहाँ पूजा होती है उसे पूजास्थल, जहाँ प्रार्थना होती है उसे प्रार्थनालय कहते हैं। वेदज्ञ मानते हैं कि भगवान प्रार्थना से प्रसन्न होते हैं पूजा से नहीं।
वास्तु रचना :—-
प्राचीन काल से ही किसी भी धर्म के लोग सामूहिक रूप से एक ऐसे स्थान पर प्रार्थना करते रहे हैं, जहाँ पूर्ण रूप से ध्यान लगा सकें, मन एकाग्र हो पाए या ईश्वर के प्रति समर्पण भाव व्यक्त किया जाए। इसीलिए मंदिर निर्माण में वास्तु का बहुत ध्यान रखा जाता है। यदि हम भारत के प्राचीन मंदिरों पर नजर डाले तो पता चलता है कि सभी का वास्तुशील्प बहुत सुदृड़ था। जहाँ जाकर आज भी शांति मिलती है।
यदि आप प्राचीनकाल के मंदिरों की रचना देखेंगे तो जानेंगे कि सभी कुछ-कुछ पिरामिडनुमा आकार के होते थे। शुरुआत से ही हमारे धर्मवेत्ताओं ने मंदिर की रचना पिरामिड आकार की ही सोची है।
ऋषि-मुनियों की कुटिया भी उसी आकार की होती थी। हमारे प्राचीन मकानों की छतें भी कुछ इसी तरह की होती थी। बाद में रोमन, चीन, अरब और युनानी वास्तुकला के प्रभाव के चलते मंदिरों के वास्तु में परिवर्तन होता रहा।
मंदिर पिरामिडनुमा और पूर्व, उत्तर या ईशानमुखी होता है। कई मंदिर पश्चिम, दक्षिण, आग्नेय या नैरत्यमुखी भी होते हैं, लेकिन क्या हम उन्हें मंदिर कह सकते हैं? वे या तो शिवालय होंगे या फिर समाधि-स्थल, शक्तिपीठ या अन्य कोई पूजा-स्थल।
मंदिर के मुख्यत: उत्तर या ईशानमुखी होने के पीछे कारण यह कि ईशान से आने वाली उर्जा का प्रभाव ध्यान-प्रार्थना के लिए अति उत्तम माहौल निर्मित करता है। मंदिर पूर्वमुखी भी हो सकता हैं किंतु फिर उसके द्वार और गुंबद की रचना पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
प्राचीन मंदिर ध्यान या प्रार्थना के लिए होते थे। उन मंदिर के स्तंभों या दीवारों पर ही मूर्तियाँ आवेष्टित की जाती थी। मंदिरों में पूजा-पाठ नहीं होता था। यदि आप खजुराहो, कोणार्क या दक्षिण के प्राचीन मंदिरों की रचना देखेंगे तो जान जाएँगे कि मंदिर किस तरह के होते हैं। ध्यान या प्रार्थना करने वाली पूरी जमात जब खतम हो गई है तो इन जैसे मंदिरों पर पूजा-पाठ का प्रचलन बड़ा। पूजा-पाठ के प्रचलन से मध्यकाल के अंत में मनमाने मंदिर बने। मनमाने मंदिर से मनमानी पूजा-आरती आदि कर्मकांडों का जन्म हुआ जो वेदसम्मत नहीं माने जा सकते।
नगरों के विकास के साथ-साथ मंदिरों का निर्माण होता रहता हैं। समय-समय पर पुराने मंदिरों का जीर्णोद्धार भी किया जाता है, उनका सौंदर्यीकरण किया जाता है।
मंदिर और मठ चीन के बौध धर्म के वास्तु निर्माण में गिना जाता है ,मंदिर का निर्माण सब से पहले भारत में आरंभ हुआ था , चीन के उत्तरी वुई राज्यकाल में मंदिर का निर्माण जोरों पर चलने लगा । मंदिरों व मठों के विकास से चीन के सामंती समाज के सांस्कृतिक विकास तथा धार्मिक उत्पत्ति व ह्रास की झलक मिलती है , जिस का बड़ा एतिहासिक मूल्य और कला का महत्व होता है ।
प्राचीन काल में चीनी लोग वास्तु निर्माणों में यन-यांग वाले चीनी दर्शन शास्त्र के विश्व दृष्टिकोण पर विश्वास रखते थे और निर्माणों में संतुलन ,सममिति और स्थायित्व का सौंदर्य बौध मानते थे , इस से प्रस्थान हो कर चीन के बौध मंदिर निर्माणों में पूर्वज भक्ति तथा ब्रह्मण कर्म का विशिष्ट समावेश देखा जा सकता है , मंदिर की संरचना चतुर्कोण है , बींचोंबीच के धुरी पर मुख्य भवन का निर्माण है और दोनों तरफ समानांतर वास्तु निर्माण होते हैं , पूरे निर्माण समूह के संतुलित और सुव्यवस्थित होने पर बल दिया जाता है । इस के अलावा उद्यान सरीखा मंदिर भी चीन में देखने को बहुत पाता है । इन दोनों शैली के प्रयोग से चीन के मंदिर और मठ देखने में बड़ा भव्य और गांभीर्य लिए हुआ है , साथ ही उस में असाधारण प्राकृतिक सौंदर्य और गहन चेत भाव व्यक्त होता है ।
निर्माण संरचना पर प्राचीन काल के चीनी मंदिर और मठ के सामने बीचोंबीच मुख्य द्वार होता है , उस की दोनों तरफ घंटा टावर और ढोल टावर है , मुख्य द्वार पर दिगिश्वर भवन है , मुख्य द्वार के भीतर चार वज्रधर मुर्तियां विराजमान है , मंदिर के भीतर क्रमशः महावीर भवन तथा सूत्र भंडारण भवन आता है , उन के दोनों तरफ भिक्षु निवास और भोजनालय है । महावीर भवन बौध मंदिर का सब से अहम और सब से बड़ा भवन निर्माण है , भवन में महात्मा बुद्ध की प्रतीमा विराजमान है । स्वी और थांग राज्य काल से पहले चीन के मंदिरों में मुख्य दरवाजे के बाहर या प्रांगन के भीतर स्तूप बनाये गए थे , उस के पश्चात मंदिर के भीतर बुद्ध भवन स्थापित किया गया और स्तूप अलग जगह बनाये जाने लगा ।
यदि यह निर्माण या जीर्णोद्धार वास्तु अनुरूप होता है, तो भक्तों का उस मंदिर के प्रति आकर्षण बना रहता है। जहां भक्तों की भीड़ पूजा-प्रार्थना करने के लिए प्रतिदिन आती रहती है। भक्त मन्नतें मांगते हैं। ऐसे मंदिरों में चढ़ावा भी खूब आता है। पर इसके विपरीत मंदिरों का निर्माण या पुराने मंदिरों का जीर्णोद्धार करते समय वास्तु सिद्धांतों की अवहेलना हो जाती है। तो ऐसे मंदिरों के प्रति भक्तों का आकर्षण कम हो जाता है। वहां दर्शन-पूजन करने लोग कम आते हैं, और भक्तों के मन में विशेष श्रद्धा भी नहीं होती है।
‘विश्वकर्मा प्रकाश’’ और ‘‘समरंगन सूत्रधार’’ वास्तुशास्त्र के प्रमुख प्राचीन ग्रंथ हैं। इन वास्तु ग्रंथों के अलावा भी हमारे कई प्राचीन ग्रंथों जैसे-रामायण, महाभारत, मत्स्य पुराण इत्यादि में वास्तु के बहुमूल्य सिद्धांत बिखरे पड़े हैं। जहां धर्म के माध्यम से इस शास्त्र के लोकोपयोगी सिद्धांतों को व्यवहार में लाने की पुष्टि होती है।
बाल्मिकी रामायण में भगवान श्री राम के मुख से वास्तु संबंधी कुछ महत्वपूर्ण सूत्र कहलाए गए हैं। किष्किंधा कांड में जब श्रीराम व लक्ष्मण बाली वध के उपरांत प्रस्रवण पर्वत पर निवास के लिए अनुकूल स्थान की तलाश कर रहे थे, तब पर्वत की सुंदरता का वर्णन करते हुए एक स्थान पर रुककर वे अपने अनुज लक्ष्मण से कहते है-‘‘लक्ष्मण, यह स्थान देखो इस स्थान का ईशान नीचा व पश्चिम ऊंचा है यहां पर पर्णकुटी बनाना श्रेष्ठ रहेगा। यह स्थान सिद्धि दायक एवं विजय दिलाने वाला है।’’ सभी ग्रंथों में ऐसी भूमि की प्रशंसा मिलती हैं जिसका नैऋत्य कोण ऊंचा एवं ईशान कोण नीचा हो।
जैसे-भरत जब अयोध्या लौटकर आए तो उन्हें ज्ञात हुआ कि प्रजा का सोचना है कि, श्रीराम को षड्यंत्र करके भरत जी ने वनवास कराया है तब भरत दुःखी होकर रामायण के एक प्रसंग में बताते हैं-‘‘सूर्य की ओर अभिमुख या अनभिमुख होकर मैं मल-विसर्जन करने वाला मूर्ख नहीं हूं।’’ यह वास्तु सिद्धांत है कि, कभी भी पूर्व की तरफ मुंह या पीठ करके मल विसर्जन नहीं करना चाहिए। महाभारत के युद्ध का कारण इन्द्रप्रस्थ के बीचोंबीच बनवाया गया दृष्टि भ्रमित करने वाला पानी का कुंड ही था। इसलिए कोई भी भवन चाहे वह कोई धार्मिक स्थल जैसे-मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च, मठ इत्यादि ही क्यों न हों, निर्माण करते समय वास्तु सिद्धांतो का पालन अवश्य करना चाहिए।
मंदिर ऐसी भूमि पर बनाएं जिसके उत्तर-पूर्व में तालाब, नदी, सरोवर, झरना इत्यादि हों और दक्षिण व पश्चिम में ऊंचे-ऊंचे पर्वत व पहाडि़यां हों। ऐसे स्थान पर बना मंदिर वैभव एवं प्रसिद्धि पाता है।
जहां मंदिर का निर्माण करना हो उस भूमि का आकार वर्गाकार या आयताकार होना चाहिए। अनियमित आकार नहीं होना चाहिए। भूमि की दिशाएं ध्रुव तारे की सीध में हों अर्थात् भूमि की चारों दिशाएं समान्तर हों, कोने में न हों।
मंदिर की भूमि की उत्तर, पूर्व एवं ईशान दिशा का दबा, कटा एवं गोल होना बहुत अशुभ होता है, विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता हैं। इसके विपरीत मंदिर की भूमि का इन दिशाओं का बढ़ा होना बहुत शुभ होता है। यदि यह दिशाएं दबी, कटी या गोल हों, तो इन्हें शीघ्र बढ़ाकर या घटाकर समकोण करके इसके अशुभ परिणामों से बचना चाहिए। भूमि का दक्षिण पश्चिम कोना 9.. का होना चाहिए।
गर्भ गृह के अंदर घंटा, लाउडस्पीकर इत्यादि भी नहीं लगाना चाहिए। मंदिर का घंटा सभामंडप की सीढि़यों के पास अंदर और लाउडस्पीकर सभा मंडप की छत पर लगाया जा सकता है।
मंदिर के पूर्व में रोशनदान होना शुभ होता है जहां से सुबह के सूर्य की किरणें मूर्ति पर बिना किसी रुकावट के पड़े।
मंदिर के गर्भगृह के पीछे कोई कमरा न हो। मंदिर की परिक्रमा करने के लिए पर्याप्त स्थान छोड़ना चाहिए ताकि भक्तों को मंदिर की परिक्रमा करने में कोई असुविधा न हो।
दक्षिण या पश्चिम दिशा में स्थित गर्भ गृह वाले मंदिर के गर्भ गृह की तुलना में मंदिर प्रांगण के अन्य सभी की छत की ऊंचाई कम होनी चाहिए।
दीप स्तंभ, अग्नि कुंड, यज्ञ कुंड इत्यादि आग्नेय कोण में होने चाहिए।
प्रसाद, लंगर, भंडारा इत्यादि बनाने के लिए रसोईघर की व्यवस्था मंदिर प्रांगण के आग्नेय कोण में करनी चाहिए।
मंदिर के गर्भ गृह में कभी भी नारियल नहीं फोड़ना चाहिए। नारियल फोड़ने की मशीन या शिला वायव्य कोण मंे रखने चाहिए।
प्रसाद वितरण का कार्य मंदिर के ईशान कोण में होना चाहिए।
मंदिर की दान पेटी उत्तर दिशा इस प्रकार रखनी चाहिए कि वह उत्तर दिशा की ओर ही खुले।
मंदिर में काम आने वाले वाद्य यंत्र जैसे-ढोलक, तबले, हारमोनियम इत्यादि रखने का कमरा वायव्य कोण में बनाना चाहिए।
मंदिर में भक्तों के हाथ, पैर व मुंह धोने एवं पीने के पानी की व्यवस्था मन्दिर प्रांगण के उत्तर या पूर्व दिशा में करनी चाहिए।
मंदिर प्रांगण में भक्तों के बैठने के लिए बेंच दक्षिण दिशा में बनानी चाहिए।
मंदिर में आने वाले भक्तों के जूते-चप्पल रखने का स्टैंड मंदिर प्रांगण में उत्तर दिशा में बनाना चाहिए। मंदिर प्रांगण में जलकुंड का निर्माण उत्तर या पूर्व दिशा में करना चाहिए। कुआं या बोर ईशान कोण में होना चाहिए। इसके विपरीत अन्य किसी भी दिशा में इनका होना अशुभ होता है।
मंदिर के चारों ओर कम्पाउंड वाॅल अवश्य बनानी चाहिए। जहां प्रवेश द्वार पूर्व या पूर्व ईशान में होना सर्वोत्तम होता है। उत्तर या उत्तर ईशान में होना उत्तम होता है। यदि इन दो दिशाओं में द्वार रखने की स्थिति न हो तो वैकल्पिक तौर पर दक्षिण आग्नेय या पश्चिम वायव्य में भी रख सकते हंै। मंदिर के चारों ओर प्रवेश द्वार होना शुभ माना जाता है। प्रमुख प्रवेश द्वार अन्य द्वारों से ऊंचा, बड़ा एवं सुंदर बनाना चाहिए। किसी भी प्रवेश द्वार के सामने किसी प्रकार का वेध नहीं होना चाहिए-जैसे खंभा, पेड़ इत्यादि।
मंदिर की कम्पाउंड वाॅल दक्षिण-पश्चिम दिशा में ऊंची व उत्तर-पूर्व दिशा में कम ऊंचाई की बनानी चाहिए।
मंदिर में सत्संग भवन व भक्तों के ठहरने की धर्मशाला, विवाह-स्थल इत्यादि वायव्य कोण या इसके पास उत्तर या पश्चिम में होने चाहिए।
मंदिर में पुजारियों के कमरे एवं स्टोर रूम मंदिर प्रांगण के नैऋत्य कोण में बनाए जा सकते हंै।
मंदिर प्रांगण में शौचालय पश्चिम या वायव्य कोण वाले भाग में बनाना चाहिए। ध्यान रहे टाॅयलेट का निर्माण ईशान कोण में किसी भी स्थिति में नहीं करें।
मंदिर के लिए बिजली के मीटर, ट्रांसफार्मर, जेनरेटर अन्य विद्युत उपकरण की व्यवस्था आग्नेय कोण में करनी चाहिए।
मंदिर में आए दर्शनार्थियों के वाहनों की पार्किंग व्यवस्था मंदिर के बाहर उत्तर या पूर्व दिशा में करनी चाहिए।
मंदिर प्रांगण में तुलसी व अन्य छोटे पौधे एवं बगीचा उत्तर, पूर्व एवं ईशान कोण में बनाना चाहिए। बड़े वृक्ष जैसे-पीपल, बड़, केले इत्यादि दक्षिण, पश्चिम एवं नैऋत्य कोण में लगाने चाहिए। मंदिर के गर्भगृह के ऊपर गुंबद अवश्य बनाना चाहिए ,जिसकी संरचना खोखली होनी चाहिए। गंुबद की खोखली संरचना से एक विशेष प्रकार की ऊर्जा पैदा होती है जो वहां आने वाले दर्शनार्थियों को मानसिक शांति प्रदान करती है।
मंदिर के लिए संगमरमर का फर्श सर्वोत्तम होता है। कभी भी मंदिर के फर्श पर ग्रेनाइट का उपयोग नहीं करना चाहिए।
प्राचीन काल से मंदिरों में तलघर बनाने की परंपरा है जो, संत महात्माओं को आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त करने के लिए उपयुक्त स्थान माना जाता है। यह तलघर मंदिर प्रांगण के पूर्व, उत्तर या ईशान कोण में ही बनाना चाहिए। .. तलघर में अगरबत्ती, गूगल इत्यादि लगाना अशुभ होता है। इनका धुआं तलघर से बाहर ठीक तरीके से नहीं निकल पाता इस कारण वहां नकारात्मक ऊर्जा बड़ी मात्रा में इकठ्ठी हो जाती है जो स्वास्थ्य के लिए काफी नुकसानदायक होती है। इसलिए कई मंदिरों के गर्भ गृह में अगरबत्ती लगाने पर प्रतिबंध होता है।
मंदिर की दीवारों का रंग बैंगनी, या गुलाबी रंग करना शुभ होता है इससे ध्यान करते समय एकाग्रता बढ़ती है और ध्यान में बैठने के लिए अच्छे वातावरण का निर्माण होता है।
देवताओं की मूर्ति स्थापित करने के लिए मंदिर का गर्भ गृह पश्चिम या दक्षिण दिशा में बनाना चाहिए। देवताओं की मूर्तियां पश्चिम में पूर्व मुखी या दक्षिण में उत्तर मुखी स्थापित करनी चाहिए। यदि पूर्व या उत्तर दिशा में गर्भ गृह बनाना हो तो भूमि के अंदर इन दिशाओं में गड्ढ़ा करके बनाना चाहिए।जैसे-गुवाहाटी का कामाख्यादेवी मंदिर व कोलकाता का काली माता मंदिर।
दक्षिण व पश्चिम दिशा में बने गर्भ गृह के सामने, उत्तर व पूर्व दिशा में बने सभा मंडप की ऊंचाई गर्भ गृह के प्लेट फार्म की ऊंचाई से कुछ कम होनी चाहिए। यदि गर्भगृह पूर्व या उत्तर दिशा में बना है तो दक्षिण-पश्चिम दिशा में सभा मंडप के प्लेटफार्म की ऊंचाई ज्यादा होनी चाहिए।
मंदिर के गर्भ गृह में कभी भी पंखा या कूलर नहीं लगाना चाहिए। इससे वहां उत्पन्न चुंबकीय वातावरण अशुद्ध होता है। इसी कारण प्रसिद्ध प्राचीन मंदिरों के गर्भ गृह में खिड़कियां तक नहीं होती केवल आने-जाने के लिए एक दरवाजा होता है।
पं. दयानन्द शास्त्री
विनायक वास्तु एस्ट्रो शोध संस्थान ,
पुराने पावर हाऊस के पास, कसेरा बाजार,
झालरापाटन सिटी (राजस्थान) ..6…
मो. नं. —-.
E-Mail – vastushastri.8@yahoo.com;
— -vastushastri.8@rediffmail.com;