मनुष्य के लिए संसार में सबसे पहली घटना उसका इस पृथ्वी पर जन्म है, इसीलिए प्रथम भाव जन्म भाव कहलाता है। जन्म लेने पर जो वस्तुएं मनुष्य को प्राप्त होती हैं उन सब वस्तुओं का विचार अथवा संबंध प्रथम भाव से होता है जैसे-रंग-रूप, कद, जाति, जन्म स्थान तथा जन्म समय की बातें।
ईश्वर का विधान है कि मनुष्य जन्म पाकर मोक्ष तक पहुंचे अर्थात प्रथम भाव से द्वादश भाव तक पहुंचे। जीवन से मरण यात्रा तक जिन वस्तुओं आदि की आवश्यकता मनुष्य को पड़ती है वह द्वितीय भाव से एकादश भाव तक के स्थानों से दर्शाई गई है।
मनुष्य को शरीर तो प्राप्त हो गया, किंतु शरीर को स्वस्थ रखने के लिए, ऊर्जा के लिए दूध, रोटी आदि खाद्य पदार्थो की आवश्यकता होती है अन्यथा शरीर नहीं चलने वाला। इसीलिए खाद्य पदार्थ, धन, कुटुंब आदि का संबंध द्वितीय स्थान से है।
धन अथवा अन्य आवश्यकता की वस्तुएं बिना श्रम के प्राप्त नहीं हो सकतीं और बिना परिश्रम के धन टिक नहीं सकता। धन, वस्तुएं आदि रखने के लिए बल आदि की आवश्यकता होती है इसीलिए तृतीय स्थान का संबंध, बल, परिश्रम व बाहु से होता है। शरीर, परिश्रम, धन आदि तभी सार्थक होंगे जब काम करने की भावना होगी, रूचि होगी अन्यथा सब व्यर्थ है।
अत: कामनाओं, भावनाओं का स्थान चतुर्थ रखा गया है। चतुर्थ स्थान मन का विकास स्थान है। मनुष्य के पास शरीर, धन, परिश्रम, शक्ति, इच्छा सभी हों, किंतु कार्य करने की तकनीकी जानकारी का अभाव हो अर्थात् विचार शक्ति का अभाव हो अथवा कर्म विधि का ज्ञान न हो तो जीवनचर्या आगे चलना मुश्किल है। पंचम भाव को विचार शक्ति के मन के अन्ततर जगह दिया जाना विकास क्रम के अनुसार ही है।
यदि मनुष्य अड़चनों, विरोधी शक्तियों, मुश्किलों आदि से लड़ न पाए तो जीवन निखरता नहीं है। अत: षष्ठ भाव शत्रु, विरोध, कठिनाइयों आदि के लिए मान्य है।
मनुष्य में यदि दूसरों से मिलकर चलने की शक्ति न हो और वीर्य शक्ति न हो तो वह जीवन में असफल समझा जाएगा। अत: मिलकर चलने की आदत व वीर्यशक्ति आवश्यक है और उसके लिए भागीदार, जीवनसाथी की आवश्यकता होती ही है। अत: वीर्य जीवनसाथी, भागीदार आदि का विचार सप्तम भाव से किया जाता है।
यदि मनुष्य अपने साथ आयु लेकर न आए तो उसका रंग, रूप, स्वास्थ्य, गुण, व्यापार आदि कोशिशें सब बेकार अर्थात् व्यर्थ हो जाएंगी। अत: अष्टम भाव को आयु भाव माना गया है। आयु का विचार अष्टम से करना चाहिए।
नवम स्थान को धर्म व भाग्य स्थान माना है। धर्म-कर्म अच्छे होने पर मनुष्य के भाग्य में उन्नति होती है और इसीलिए धर्म और भाग्य का स्थान नवम माना गया है।
दसवें स्थान अथवा भाव को कर्म का स्थान दिया गया है। अत: जैसा कर्म हमने अपने पूर्व में किया होगा उसी के अनुसार हमें फल मिलेगा। एकादश स्थान प्राप्ति स्थान है। हमने जैसे धर्म-कर्म किए होंगे उसी के अनुसार हमें प्राप्ति होगी अर्थात् अर्थ लाभ होगा, क्योंकि बिना अर्थ सब व्यर्थ है आज इस अर्थ प्रधान युग में।
द्वादश भाव को मोक्ष स्थान माना गया है। अत: संसार में आने और जन्म लेने के उद्देश्य को हमारी जन्मकुण्डली क्रम से इसी तथ्य को व्यक्त करती है।
जन्मकुण्डली का फल कथन : —-
जिस भाव में जो राशि होती है उसी राशि के स्वामी ग्रह को उस भाव का भावेश कहते हैं। तृतीय, षष्ठ, एकादश भावों के पापी ग्रहों का रहना शुभ माना जाता है।
षष्ठ, अष्टम एवं द्वादश भाव के स्वामी जिन भावों में रहते हैं उसका वह अनिष्ट करते हैं यदि वह स्वग्रही अथवा उच्च न हो तो।
अपने स्वामी ग्रह से देखा जाने वाला भाव बलवान व शुभ होता है। अष्टम व द्वादश भाव में सभी ग्रह अनिष्ट फलप्रद होते हैं, किंतु शुक्र द्वादश स्थान में बहुत प्रसन्न रहता है क्योंकि शुक्र एक भोगात्मक ग्रह है तथा द्वादश स्थान भोग स्थान है। छठे भाव अथवा स्थान में भी शुक्र सम्पन्न रहता है, क्योंकि छठे, स्थान से द्वादश स्थान पर शुक्र की सप्तम दृष्टि पड़ती है। अत: छठे स्थान में आया शुक्र धन के लिए शुभ होता है और भोग-विलास की वस्तुएं देता है।
ग्रह अपने भाव केन्द्रीय, त्रिकोण, पंचम, चतुर्थ, दशम हो तो शुभ होता है। किंतु ग्रह का मित्र राशि में अथवा स्वग्रही अथवा उच्च होना अथवा वक्री होना अनिवार्य है। सूर्य व मंगल को दशम भाव में, बुध व बृहस्पति को लग्न में, शुक्र व चंद्रमा को चतुर्थ में और शनि को सप्तम भाव में दिग्बल की प्राप्ति होती है।
“चन्द्र लग्नं शरीरं स्यात्, लग्नस्यात् प्राण संज्ञकम। ते उभे शंपरीक्ष्यैव सर्व नाड़ी फलं स्मृतम।”
अर्थात् चंद्र लग्न शरीर है और लग्न प्राण, इन दोनों का सम्मिलित विचार करके ही कुण्डली का फल करना चाहिए। ग्रह अपना शुभ अथवा अशुभ फल अपनी महादशा में देते हैं। महादशा व अंतर्दशा के ग्रह मित्र होकर एक दूसरे के भावों में जिसे ग्रहों का ‘राशि परिवर्तन योग’ कहते हैं, होंगे तो अत्यंत शुभ फलदायक होंगे।
महादशा व अंतर्दशा के ग्रह एक दूसरे के शत्रु होंगे तो अशुभ फल की प्राप्ति होगी। किसी भी ग्रह का उच्च का होकर वक्री होना उसकी शुभता में न्यूनता लाता है। ग्रह का वक्री होकर उच्च होना अशुभता का सूचक है।
महादशा से अंतर्दशा का स्वामी ज्यादा बलवान होता है। अत: अंतर्दशा का स्वामी शुभ हुआ और महादशा के ग्रह मित्र हुआ तो अत्यंत शुभ फलों की प्राप्ति होती है। यदि महादशा का स्वामी ग्रह महादशा का शत्रु हुआ और दोनों ग्रह एक-दूसरे से तृतीय, षष्ठम अष्टम अथवा द्वादश हुए तो महाअशुभ फलों की प्राप्ति समझनी चाहिए।
(डायमंड पॉकेट बुक्स प्रा.लि. से प्रकाशित पुस्तक ‘ज्योतिष और लक्ष्मी योग-कर्क लग्न’ से साभार )